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________________ पांचवी शताब्दी से आठवी शताब्दी के आचार्य १३१ व्याकरण के व्यवस्थित रूप का समय ईसा की छठी शताब्दी के बाद. ईसा की सातवी शताब्दी के लगभग रखा जा सकता है ऐसा लिखा है । चण्ड के प्राकृत लक्षण में योगेन्दु का एक दोहा उद्धृत है काल लहेविणु जोइया जिम जिम मोहु गलेइ। तिम तिम दसणु लहइ जो णिय में प्रप्पु मुणेइ॥ इस कारण योगेन्दु का समय छठी शताब्दी मानना उपयक्त है। सम्भव है वे छठी के उपान्त्य समय और सातवी के प्रारम्भ समय के विद्वान हों। पात्रकेसरी पात्रकेसरी-एक ब्राह्मण विद्वान थे, जो अहिच्छत्र' के निवासी थे। यह वेद वेदाग आदि में अत्यन्त निपूण थे। उनके पाच सो विद्वान शिष्य थे, जो अवनिपाल राजा के राज्य कार्य में सहायता करते थे। उन्हें अपने कुल का (ब्राह्मणत्व का) बड़ा अभिमान था। पात्र केसरी प्रातः पीर सायकाल सन्ध्या वन्दनादि नित्य कर्म करते थे और राज्य कार्य को जाते समय कौतुहल वश वहाँ के पार्श्वनाथ दि० मन्दिर में उनकी प्रशान्त मुद्रा का दर्शन करके जाया करते थे। १. अहिच्छत्र फिसी ममा एक प्राचीन ऐतिहासिक नगर था। उस पर अनेक वशो के राजाओ ने शासन किगा है। इसके प्राचीन इतिवृत्त पर दृष्टि डालने से इसकी महत्ता का महज ही भान हो जाता है। यह उत्तर पांचाल की गजधानी रहा है। इसका प्राचीन नाम 'सपावती' था, और वह कुरु जागल देश की राजधानी के रूप में प्रगिढ़ था। जब भगवान पार्श्वनाथ यहाँ आये और किमी उच्च शिना पधानाय थे। उस समय कमठ का जीव मवर देवविमान मे कही जा रहा था। उसका विमान इकाइक रुक गया, उमने नीचे उतर कर देखा तो पार्श्वनाथ दिग्वाई पडे । उन्हे देखते ही उमका पूर्व भव का वैर स्मृत हो उठा। पूर्व वैर स्मृत होते ही उसने क्षमाशील पार्श्वनाथ पर घोर उपमग किया, उतनी अधिक वर्षा की कि पानी पार्श्वनाथ की ग्रीवा तक पहुच गया, किन्तु फिर भी पार्श्वनाथ अपने ध्यान से विचलित नही हुए। तभी घरगेन्द्र का आमन कम्पायमान हुआ और उसने अवधिज्ञान में पार्श्वनाथ पर भयानक उसमर्ग होता जानकर तत्काल धरगोन्द्र पद्मावती महित आकर और उन्हे ऊपर उठाकर उनके सिर पर फरण का छत्र तान दिया। उपमर्ग दूर होते ही उन्हे केवलज्ञान प्राप्त हो गया। पाचात् उस मम्बरदेव ने भी उनकी शरण में सम्यकत्व प्राप्त किया और अपमान सौ नास्त्रियों ने भी जिनदीक्षा लेकर आत्म कल्याण किया। उसी समय में यह स्थान अहिच्छत्र नाम से मात हा है। वहा गजा वमुपाल ने महत्र कूट चैत्यालय का निर्माण कराया था। और पार्श्वनाथ को एक सुन्दर सातिशय प्रतिमा की निर्माण कराया था। यह दिगम्बर जैनियो का तीय स्थान है। यहा की खुदाई मे पुरातत्व की मामग्नी भी उपलब्ध हुयी है। -देवो, उत्तर पाचाल की राजधानी अहिच्छत्र अनेकान्त वर्ष २४ किरण ६ २ (क) विप्रवशाग्नग्गी मूरि पवित्र: पात्रकेमरी। म जीयाज्जिन-पादाब्ज-सेवनकमधुव्रतः ।। -सुदर्शन चरित्र भूभृत्पदानुवर्ती सन् राजसेवा पगङ्मुखः । सयतोऽपि च मोक्षार्थी भात्यमी पात्रकेमगे। -नगरतालुका का शिलालेख (ख) निवामे सारसम्पत्ते देशे थी मगधाभिधे । अहिच्छत्रे जगचित्र नागर नगरे वरे ॥१८ पुण्यादवनिपालाग्यो गजा गज कलान्वितः । प्रान्तं गज्यं करोत्युच्च विप्रैः पञ्चशतव्रतः ॥१६ विप्रास्ते वेद वेदाङ्ग पारगा: कुलगविताः । कृत्वा सन्ध्या वन्दना द्वये सन्ध्या च निरन्तरम् ।।२० (आराधना कथाकोष)
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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