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________________ १३० जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ देह - विभिष्णउ णाणमउ जो परमप्पु थिए । परम समाधि - परिट्टियउ पंडिउ सो जि हवेइ ॥१ – १४ ॥ जो पुरुष परमात्मा को देह से भिन्न ज्ञानमय जानता है, वही समाधि में स्थित हुआ पंडित है - प्रन्तरात्मा विवेकी है ! जित् ण इंदिय- सुह-दुहइँ जित्थु ण मण-वावारु | सो अप्पा मुणि जीव तुहुँ झण्ण परि श्रवहारु ॥ १ - २८ ॥ जिस शुद्ध आत्म-स्वभाव में इन्द्रिय जनित सुख-दुख नहीं हैं, और जिसमें संकल्प - विकल्प रूप मन का व्यापार नहीं है, है जीव ! उसे तू आत्मा मान, और अन्य विभावों का परित्याग कर । इस तरह परमात्म प्रकाश के सभी दोहा आत्म स्वरूप के सम्बोधक तथा परमात्मा स्वरूप के निर्देशक हैं । इनके मनन और चिन्तन से आत्मा आनन्द को प्राप्त होता है । योगसार - में १०८ दोहा हैं जिनमें अध्यात्म दृष्टि से आत्मस्वरूप का सुन्दर विवेचन किया गया है। दोहा सरस और सरल हैं । और वस्तु स्वरूप के निर्देशक हैं। यथा प्राउ गलइ गवि मण, गलइ गवि साहु गलेइ । मोह फुरइ नवि प्रप्यहिउ इम संसार भमेइ ॥ ४९ युगल जाती है, पर मन नही गलता और न आशा ही गलती, मोह स्फुरित होता है, पर श्रात्महित का स्फुरण नहीं होता - इस तरह जीव संसार में भ्रमण किया करता है । धंध पडियउ समलु जगि नवि श्रप्पा हु मुणंति । तहि कारण ए जीव फुडु णहु निव्वाण लहंति ॥५ संसार के सभी जीव धंधे में फंसे हुए हैं, इस कारण वे अपनी प्रात्मा को नहीं पहिचानते । श्रतएव वे निर्वाण को नहीं पा सकते । इस तरह योगसार ग्रन्थ भी आत्म सम्बोधक है। इसका अध्ययन करने से आत्मा अपने स्वरूप की ओर सन्मुख हो जाता है । अमृताशीति - यह एक उपदेश प्रद रचना । इसमें विभिन्न छन्दों के ८२ पद्य हैं। उनमें जैन धर्म के अनेक विषयों की चर्चा की गई है । यथापि पद्मप्रभमलधारि देव ने नियमसार की टीका में योगीन्द्रदेव के नाम से जो पद्य उद्धृत किया है, वह अमृताशीति में नहीं मिलता। अतएव पं० नाथूराम जी प्रेमी का अनुमान है कि वह पद्य उनके अध्यात्मसन्दोह ग्रन्थ का होगा । निजात्माष्टक - यह माठ पद्यात्मक एक स्तोत्र है। इसकी भाषा प्राकृत है जिनमें सिद्ध परमेष्ठी का स्वरूप बतलाया गया है । पर किसी भी पद्य में रचयिता का नाम नहीं है। ऐसी स्थिति में इसे योगीन्द्र देव की रचना कैसे माना जा सकता है। इस सम्बन्ध अन्य प्रमाणों की आवश्यकता है। इसका कहीं अन्यत्र उल्लेख भी मेरे अवलोकन में नहीं श्राया । सम्भव है वह इन्हीं की रचना हो, अथवा अन्य किसी की । योगेन्दु का समय योगेन्दु के परमात्म प्रकाश पर ब्रह्मदेव और बालचन्द की टीकायें उपलब्ध हैं । बालचन्द्र की टीका पर ब्रह्मदेव का प्रभाव है, इस कारण बालचन्द्र ब्रह्मदेव के बाद के विद्वान हैं । ब्रह्मदेव का समय विक्रम की ११वीं शताब्दी का उपान्त्य है । जयसेन भी उनसे बाद के विद्वान हैं, क्योंकि जयसेन ने उनकी वह द्रव्य संग्रह की टीका का उल्लेख किया है । पं० कैलाशचन्द जी सिद्धान्तशास्त्री राजा भोज के समय द्रव्यसंग्रह की टीका का वर्तमान होना मानते हैं, जो १२ शताब्दी का प्रारम्भ है । योगेन्दु ने परमात्म प्रकाश में प्राचार्य कुन्दकुन्द और पूज्यपाद ( ईसा की ५वीं सदी) के विचारों को निबद्ध किया है। अतएव उनका समय ईसा की छठी शताब्दी हो सकता है। डा० ए० एन० उपाध्ये ने अपनी परमात्म प्रकाश की प्रस्तावना में जोइन्दु का समय ईसा की छठी शताब्दी माना है; क्योंकि गुणे ने चण्ड के
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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