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________________ पाचवी शताब्दी से आठवी शताब्दो तक के आचार्य १२१ सिक्कों पर महेन्द्र, महेन्द्रसिह, महेन्द्र वर्मा, महेन्द्र कुमार आदि नाम उपलब्ध होते है । तिब्बतीय ग्रन्थ चन्द्र गर्भ सूत्र में लिखा है-"भवनो पल्हिका शकुनो (कुशना) ने मिलकर तीन लाख सेना से महेन्द्र के राज्य पर आक्रमण किया। गगा के उत्तर क प्रदेश जोत लिये। महेन्द्रमेन के युवा कुमार ने दो लाख सेना लेकर उस पर आक्रमण किया पार विजय प्राप्त का। लोटने पर पिता ने उसका अभिषेक कर दिया । इसमे मालम होता है कि पूज्यपाद ने इसी घटना का उल्लेख किया है। उसने गगा के आस-पास का प्रदेश जीतकर मथरा को अपना केन्द्र बनाया था। कुमार गुप्त का राज्य काल वि० स० ४७० मे ५१२ (सन् ४१३ से ४४५ ई० है। अत यही समय पूज्यपाद का होना चाहिए। प० युधिष्ठिर जी का यह मत ठाक नहीं है, क्योकि 'अरुणत् महेन्द्रो मथुराम्' यह वाक्य पूज्यपाद का नहीं है किन्तु महावृत्तिकार अभयनन्दि का हे । टलिये यह तर्क प्रमाणित नही हा सकता। आयमंक्ष और नागहस्ति प्रापंमक्ष और नागहस्ति-- इन दोनो प्राचार्यों की गुरु परम्परा और गण-गच्छादि का कोई उल्लेख नहीं मिलता। ये दोनो प्राचार्य यति वपन के गुरु थे। प्राचार्य वीरसेन जिनमेन ने धवला जयधवला टीका में दोनो गुरुओं का एक साथ उल्लेख किया है। इस कारण दोनो का अस्तित्व काल एक समय होना चाहिये, भले ही उनमें ज्येष्ठत्व कनिप्ठत्व हो। इन दोनों प्राचार्यो के सिद्धान्त-विषयक उपदेशों में कुछ सूक्ष्म मत भेद भी रहा है। जो वीरसेनाचार्य को उनके ग्रथों अथवा गुरु परम्परा से ज्ञात था जिनका उल्लेख धवला जयधवला टीका में पाया जाता है और जिसे पवाइज्जमाण अपवाइज्जमाण या दक्षिण प्रतिपत्ति और उत्तर प्रतिपत्ति के नाम से उल्लेखित किया है।' धवला जयधवला में उन्हें 'क्षमाश्रमण' और 'महावाचक' भी लिखा है, जो उनकी महत्ता के द्योतक है। श्वेताम्बरीय पट्टावलियो मे अज्जमगु और अज्ज नाग हत्थी का उल्लेख मिलता है । नन्दि सूत्र की पट्टावली में अज्जमगु को नमस्कार करते हुए लिखा है : भणगं करगं झरगं पभावगं णाणदंसणगुणाणं । वंदामि अज्जमंगु सुयसायरपारगं धीरं ॥२८ सूत्रों का कथन करने वाले, उनमें कहे गए प्राचार के मपालक, ज्ञान प्रोर दर्शन गुणों के प्रभावक, तथाथतसमुद्र के पारगामी धीर प्राचार्य मग को नमस्कार करता हूँ। इसी प्रकार नागहस्ति का स्मरण करते हुए लिखा है : १. भूमि का जैनेन्द्र महावृत्ति पृ०८ २. प० भगवद्दन का भारतवर्ष का इतिहास म० २००३ पृ० ३५४ ३. जो अज्जमखु सीसो अतेवामी वि णागहत्थिम्म। -जयधवला भा० १ १०४ ४: सव्वाइग्यि-सम्मदो चिरकालभवोच्छिण्णसंपदायकमेणागच्छमारणो जो शिष्यपरम्पगए पवाःज्जदेसो पवाजतो वएसोत्ति भण्णदे । अथवा अज्जमवुभयवताणमुवएसो एत्थाऽपवाइज्जमाणो णाम । गागइत्थि ग्वग्णाणमुवासो पवा ज्जतवात्ति घेतव्यो। -(जयधवला प्रस्तावना टि० पृ० ४३ ५. "कम्मठिदित्ति अणिपोगद्दारेहि भण्णमाणे वे उवएमा होति जहण्णमुक्कस्म ट्ठिदीण पगारण पम्वणा कम्मलिदि पम्वपत्ति रणागह त्य खमाममणा भणति । अज्ज मखु खमासमणा पुण कम्मट्ठिदि परूवेणेन्ति भरणति । एव दोहि उवामे हि कम्मदिदि परूपणा कायव्या।"-"एत्थ दुवे उवाएसा ..."महावाचयाणमज्जमखु खवरणाणमुवएसेण लोगपूरिदे आउग ममाण गणामा गोदवेदणीयाण टिठदि संतकम्म ठवेदि । महावाचयाण णागहत्थि खवणाण मुवएसेण लोगे पूरिदे णामा-गोद वेदरणीयाण टिठाद मत कम्म अंतो मुहुत्त पमाणं होदि । -धवला टीका
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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