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________________ १२० जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ पूज्यपाद के ग्रन्थों पर समन्तभद्र का प्रभाव स्पष्ट है । और जैनेन्द्र व्याकरण में पूज्यपाद ने 'चतुष्टयं समन्तभद्रस्य' सूत्र द्वारा उनका उल्लेख भी किया है। पूज्यपाद ने तत्त्वार्थवृत्ति में सिद्धसेन की द्वात्रिंशिका के निम्न पद्यांश को उद्धत किया है-"वियोजयति चासुभिर्न च वधेन संयुज्यते" सन्मति में सूत्र और कुछ द्वात्रिंशतिकानों के कर्ता सिद्धमेन का समय चौथी-पांचवीं शताब्दी है अतएव पूज्यपाद भी इसी समय के विद्वान् हैं। पूज्यपाद गंगवंशीय राजा अविनीति (वि० सं० ५२३) के पुत्र दुविनीति (वि० सं० ५३८) के शिक्षा गुरु थे। अवनीत के पुत्र दुविनीत ने शब्दावतार नामक ग्रन्थ की रचना की थी। प्रेमीजी ने लिखा है-शिमोगा जिले की नगर तहसील के शिलालेख में देवनन्दी को पाणिनीय व्याकरण पर शब्दावतार न्यास का कर्ता लिखा है। इससे अनुमान होता है कि दुविनीत के गुरु पूज्यपाद ने वह ग्रंथ रचकर अपने शिष्य के नाम से प्रचारित किया था। दुविनीत का राज्य काल सन् ४८० ई० से ५२० ई. के मध्य का माना जाता है। इससे पूज्यपाद ५वीं के उत्तरार्द्ध और छठी के पूर्वार्द्ध के विद्वान् ठहरते हैं। पूज्यपाद के एक विद्वान् शिष्य वज्रनन्दि ने वि० सं० ५२६ (४६६ ई.) में द्रविड़ संघ की स्थापना की थी। इससे भी पूज्यपाद का उक्त समय निश्चित होता है। व्याकरण में ग्रन्थकार प्राचीन उदाहरणों के साथ स्व-समयकालिक घटनाओं का भी निर्देश करते हैं । जैसे 'अदहदमोघवर्षोऽरातीन् शाकटायन (४/३/२०८) 'अरुणत् सिद्धराजोऽवन्तीम् हैम (५/२/८) इसी तरह जैनेन्द्र व्याकरण का 'अरुणन्मेहेन्द्रो मथुराम्' (२/२/६२) इसका अर्थ है महेन्द्र द्वारा मथुरा का विजय। यह महेन्द्र गुप्तवंशी कुमार गुप्त है। इनका पूरा नाम महेन्द्र कुमार है। जैनेन्द्र के 'विनापि निमित्तं पूर्वोत्तर पदयो ; त्वं वक्त व्यम्' (४/१/१३६) अथवा पदेषु पदैक देशान' नियम के अनुसार उसी को महेन्द्र अथवा कुमार कहते हैं। उसके 'अवेस्तस्य कालान्तरेऽविम्मरणकारणम् ।' विशेषावश्यक भाष्य में इन्ही शब्दों को दुहराते हुए कहा हैकालंतरं च जं पुणरणसरणं धारणासाउ ।। गा० २६१ चाक्षु इन्द्रिय को अप्राप्यकारी बतलाते हुए सर्वार्थ सिद्धि अ० १ सूत्र १६ में कहा है-'मनोवद् प्राप्यकारीति' विशेषावश्यक भाष्य में उसे निम्न शब्दो में व्यक्त किया है। 'लोयणमपत्तविषयं मणोव्व ।।" गाथा २०६ सर्वार्थ सिद्धि अ० १ सूत्र २० में यह शंका की गई है कि प्रथम मम्यकत्व की उत्पत्ति के समय दोनों ज्ञानों की उत्पत्ति एक साथ होती है अतएव श्रुतज्ञान मतिज्ञान पूर्वक होता है । यह नहीं कहा जा सकता। आह-प्रथम सम्यक्त्वोत्पत्तौ युगपज्ज्ञान परिणामान्मति पूर्वकत्व श्रुतस्यनोत्पद्यत इति ।' इसके प्रकाश में विशेषावश्यक की निम्न गाथा को देग्वियेणाणाण्णाणिय सम कालाई जनो मटमुआट। तो न सुयं मइ पुव्वं महणाणे वा मुयन्नाणं ।। गा० १०७ १. देखो, मर्वार्थमिद्धि समन्तभद्र पर प्रभाव शीर्षक लेख अनेकान्त वर्ष-५ पृ० ३४५ २. श्रीमकोंकण महाराजाधिराजम्याविनीत नाम्नः पुत्रेण शब्दावतारकारेण देवभारती निबद्ध बहत्कथेन किगताजनीय पंचदश सर्ग टीकाकारेण दुविनीतिनामधेयेन३. मिरि पूज्यपाद मीमो दाविड संघम्स काग्गो दुट्ठो। णामेण वज्जगदी पाहडवेदी महासत्तो।। पंचसये छब्बीसे विक्कमरायस्स मरणपत्तम्स । दक्खिण महुराजादो दाविडसंघा महामोहो। -दर्शनसार
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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