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________________ ११४ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ प्राचार्य अकलंकदेव ने अपने तत्त्वार्थ वार्तिक पृ० ५७ में शब्द प्रादुर्भाव अर्थ में इति शब्द के प्रयोग की चर्चा के प्रसङ्ग में 'इति श्रीदत्तम्' का उल्लेख किया है। इससे ज्ञात होता है कि ये कोई शब्द शास्त्र निष्णात प्राचार्य थे, और उनका समय पूज्यपाद (देवनन्दि) से पूर्ववर्ती है। जिनसेनाचार्य ने आदि पुराण में उनका स्मरण करते हुए उन्हें तपः श्रीदीप्त मूर्ति और वादिरूपी गजों का प्रभेदक सिंह बतलाया है । इससे वे बड़े दार्शनिक और किसी दार्शनिक ग्रन्थ के कर्ता रहे हैं।' आचार्य विद्यानन्द ने तत्त्वार्थ श्लोक वार्तिक में उन्हें वेसठवादियों का विजेता कहा है और उनके 'जल्प निर्णय' नामक ग्रन्थ का उल्लेख किया है। जैसा कि उनके निम्न पद्य से प्रकट है। द्विप्रकारं जगौ जल्पं तत्त्वप्रातिभगोचरम् ॥ त्रिषष्ठे,दिनां जेता श्रीदत्तो जल्पनिर्णये ॥४५ -तत्त्वा० श्लो० वा०प०२८० जल्प निर्णय ग्रन्थ जय-पराजय की व्यवस्था का निर्णायक जान पड़ता है। अकलंक देव के सिद्धि विनिश्चय के जल्पसिद्धि प्रकरण आदि में संभवतः उसका उपयोग किया गया हो। अक्षपाद गौतम के 'न्याय सूत्र' में जिन सोलह पदार्थों के तत्वज्ञान से मोक्ष माना गया है, उनमें वाद, जल्प और वितण्डा भी है । वादी को प्रतिवादी के मध्य होने वाले शास्त्रार्थ को वाद कहते हैं। जल्प और वितंडा भी उसी के प्रकार हैं। प्राचार्य श्रीदत्त ने उसमें से जल्प का निर्णय करने के लिए जल्प निर्णय ग्रन्थ रचा होगा। चूंकि श्रीदत्त ने वेसठ वादियों को जोता था, इस कारण वे वाद शाखा के निष्णात पंडित थे। वे बड़े भारी तपस्वी और दर्शन शास्त्र के प्रकाण्ड विद्वान थे। प्रभयनन्दि की महावृत्ति से सूचित होता है कि श्रीदत्त अत्यन्त प्रसिद्ध वैयाकरण थे जो लोक में प्रमाण माना जाता है। 'इति श्रीदत्तम्' यह प्रयोग 'इति पाणिनि' के सदृश लोकप्रसिद्ध था। इसी प्रकार-तच्छी दत्तम्' अहो श्रीदत्त' आदि प्रयोग भी श्रीदत्त की लोकप्रियता और प्रामाणिकता को अभिव्यक्त करते हैं सूत्र ।३।३।७६ पर 'तेन योक्तम् के उदाहरण में अभयनन्दी ने श्रीदत्त विरचित सूत्र ग्रन्थ को श्रीदत्तीयम्' कहा है। इससे स्पष्ट है कि श्रीदत्त का बनाया कोई ग्रन्थ अवश्य था? । बहत संभव है कि प्राचार्य जिनसेन और देवनन्दी द्वारा उल्लिखित श्रीदत्त एक ही हो और यह भी हो सकता है कि भिन्न हों। आदि पुराणकार ने चूंकि श्रीदत्त को तपः श्रीदीप्त मूर्ति और वादिरूपगज गणों का प्रभेदक सिंह बतलाया है। इससे श्रीदत्त दार्शनिक विद्वान जान पड़ते हैं। यशोभद्र ये प्रखर तार्किक विद्वान् थे। उनके सभा में पहुंचते ही वादियों का गर्व खर्व हो जाता था। आचार्य देवनन्दी ने भी अपने जैनेन्द्र व्याकरण में 'क्ववृषिमजां यशोभद्रस्य ।। ३४' सत्र में यशोभद्र का उल्लेख किया है। इनकी किसी भी कृति का उल्लेख हमारे देखने में नहीं पाया। देवनन्दी द्वारा जैनेन्द्र व्याकरण में उल्लेखित और जिनसेन द्वारा स्मृत यशोभद्र दोनों एक ही हैं, तो इनका समय ईसा की ५वी, तथा वि० की छठी शताब्दी या उससे कुछ पूर्ववर्ती जान पड़ता है। १. श्रीदत्ताय नमस्तस्मै तपः श्रीदीप्तमूर्तये । कण्ठीरवायितं येन प्रवादीभप्रभेदने ॥ ४५ २. विदुष्विरणीषु संसत्सु यस्य नामापि कीर्तितम् । निखर्वयति तद्गवं यशोभद्रः स पातु नः ॥ आदि पु०१,४६
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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