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________________ आचार्य समन्तभद्र शक संवत् १०५६ के एक शिलालेख में तो यहां तक लिखा है कि स्वामो समन्तभद्र वर्द्धमान स्वामी के तीर्थ की सहस्रगुणी वृद्धि करते हुए उदय को प्राप्त हुए।' वीरनन्दि आचार्य ने 'चन्द्रप्रभ चरित्र' में लिखा है कि-गुणों से-पूत के धागों से गूथो गई निर्मल गोल मोतियों से युक्त अोर उत्तम पुरुषां के कण्ठ का विभूषण वनो हुई हारयष्टि को-श्रेष्ठ मोतियों को माला को-प्राप्त कर लेना उतना कठिन नहीं है जितना कठिन समन्तभद्र को भारतो (वाणी) को पा लेना कठिन है, क्योंकि वह वाणी निर्मलवृत्त (चारित्र) रूपो मुक्ताफलों से युक्त है और बड़े बड़े मुनि पुंगवों-आचार्यों ने अपने कण्ठ का आभूषण बनाया है, जैसा कि उसके निम्न पद्य से स्पष्ट है: गुणाविन्ता निर्मलवृत्त मौक्तिका नरोत्तमैः कण्ठ विभूषणी कृता। न हारयष्टिः परमेव दुर्लभा समन्तभद्रादि भवा च भारती॥ इस तरह समन्तभद्र की वाणी को जिन्होंने हृदयगम किया है वे उसको गभोरता ओर गरुता से वाकिफ़ हैं। आचार्य समन्तभद्र की भारती (वाणी) कितनी महत्वपूर्ण है इसे बतलाने की आवश्यकता नहीं है। स्वामी समन्तभद्र ने अपनी लोकोपकारिणी वाणी से जैनमार्ग को सब ओर से कल्याणकारी बनाने का प्रयत्न किया है । जिन्होंने उनकी भारती का अध्ययन और मनन किया है वे उसके महत्व से परिचित हैं। उनका वाणो में उपेय और उपाय दोनों तत्त्वों का कथन अकित है ज पूर्व पक्ष का निराकरण करने में समर्थ है, जिसमें सप्तभंगों और सप्तनयों द्वारा जीवादि तत्त्वों का परिज्ञान कराया गया है और जिसमें पागम द्वारा वस्तु धर्मों को सिद्ध किया गया है, जिसके प्रभाव से पात्रकेशरी जैसे ब्राह्मण विद्वान जैनधर्म की शरण में आकर प्रभावशाली प्राचार्य बनें, जो अकलंक और विद्यानन्द जैसे मूनि पगवों के भाष्य और टीकाग्रन्थ से अलंकृत है वह समन्तभद्र वाणो सभी के द्वारा अभिनन्दन नीय, वन्दनीय और स्मरणीय है। कृतियाँ ___इस समय प्राचार्य समन्तभद्र की ५ कृतियाँ उपलब्ध हैं। देवागम (आप्तमीमांसा) स्वयंभूस्तोत्र, युक्त्यनुशासन, जिन शतक (स्तुतिविद्या) और रत्नकरण्डश्रावकाचार । इनके अतिरिक्त जीवसिद्धि नाम को कृति का उल्लेख तो मिलता है पर वह अभी तक कहीं से उपलब्ध नहीं हुई । यहाँ उपलल्ध कृतियों का परिचय दिया जाता है। देवागम-जिस तरह आदिनाथ स्तोत्र और पाश्र्वनाथ स्तात्र 'भक्तमर और कल्याणमन्दिर' जैसे शब्दों से प्रारम्भ होने के कारण भक्तामर और कल्याण मन्दिर नाम से उल्लेखित 'भक्तामर' और कल्याण" मन्दिर' कहा जाता है। उसी तरह यह ग्रन्थ भी 'देवागम' शब्दों से प्रारम्भ होने के कारण देवागम कहा जाने लगा। इसका दसरा नाम आप्तमीमांसा है। ग्रन्थ में दश परिच्छेद और ११४ कारिकाएँ हैं । ग्रन्थकार ने वीर जिन की परीक्षा कर उन्हें सर्वज्ञ और आप्त बतलाया है, तथा युक्तिशास्त्र विरोधी वाकहेतु के द्वारा प्राप्त की परीक्षा की गई है-अर्थात जिनके वचन यूक्ति और शास्त्र से अविरोधि पाये गये उन्हें ही प्राप्त बतलाया है। और जिनके वचन यक्ति और शास्त्र के विराधी पाये गये और जिनके वचन बाधित हैं, उन्हें प्राप्त नहीं बतलाया। साथ में यह भी बतलाया कि हे भगवन् ! आपके शासनामृत से बाह्य जो सर्वथा एकान्तवादी हैं, वे प्राप्त नहीं हैं, किन्तु आप्त के अभिमान से १. देखो बेलूरताल्लुके का शिलालेख नं० १७, जो सौम्यनाथ के मन्दिर की छत के एक पत्थर पर उत्कीर्ण है। -स्वामी समन्तभद्र पृ० ४६ २. जैनवर्त्म समन्तभद्रमभवद्भद्रं समन्तात्मुहुः । -मल्लिषेण प्रशस्ति ३. जीव सिद्धि विधायीह कृतयुक्त्यनु शासनम् । वचः समन्तभद्रस्य वीरस्येव विजृम्भते ॥ -हरिवंश पुराण १-३०
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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