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________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास--भाग २ १४ समन्तभद्र जहाँ जिस भेष में पहुँचे उसका उल्लेख इस पद्य में किया गया है। साथ में यह भी व्यक्त कर दिया है कि मैं जैन निर्ग्रन्थ वादी हूँ। हे राजन् ! जिसकी शक्ति हो सामने प्राकर वाद करे। प्राचार्य समन्तभद्र के वचनों की यह खास विशेषता थी कि उनके वचन स्याद्वाद न्याय की तुला में नपे समन्तभद्र स्वयं परीक्षा प्रधानी थे, प्राचार्य विद्यानन्द ने उन्हें 'परिवेक्षण' परीक्षा नेत्र से सबको है। वे दूसरों को भी परीक्षा प्रधानी बनने का उपदेश देते थे। उनकी वाणी का यह जबर्दस्त प्रभाव था कि कठोर भाषण करने वाले भी उनके समक्ष मृदुभाषी बन जाते थे। महान व्यक्तित्व प्राचार्य समन्तभद्र के असाधारण व्यक्तित्व के विषय में पंचायती मन्दिर दिल्ली के एक जीर्ण-शीर्ण गुच्छक में स्वयम्भू स्तोत्र के अन्त में पाये जाने वाले पद्य में दश विशेषणों का उल्लेख किया गया है : प्राचार्योऽहं कविरहमहं वादिराट् पण्डितोऽहं । वैवज्ञोऽहं भिषगहमहं मांत्रिकस्तांत्रिकोऽहं । राजन्नस्यां जलधिवलया मेखलायामिलायाम । प्राज्ञासिद्धिः किमिति बहुना सिद्ध सारस्वतोऽहम् ॥ इस पद्य के सभी विशेषण महत्वपूर्ण हैं। किन्तु इनमें प्राज्ञासिद्ध और सिद्ध सारस्वत ये दो विशेषण समन्तभद्र के असाधारण व्यक्तित्व के द्योतक हैं । वे स्वयं राजा को सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि हे राजन् ! मैं इस समुद्र वलया पृथ्वी पर आज्ञा सिद्ध हूँ-जो आदेश देता हूँ वही होता है। और अधिक क्या कहूं मैं सिद्ध सारस्वत हूँ-सरस्वती मुझे सिद्ध है । सरस्वती की सिद्धि में ही वादशक्ति का रहस्य सन्निहित है। गुण-गौरव ___ स्वामी समन्तभद्र को प्राद्य स्तुतिकार होने का गौरव भी प्राप्त है। श्वेताम्बरीय प्राचार्य मलयगिरि ने 'अावश्यक सूत्र' की टीका में 'आद्यस्तुतिकारोऽप्याह-वाक्य के साथ स्वयंभूस्तोत्रका 'नयास्तव स्यात्पदसत्यलाञ्छन (ज्छिता) इमे' नाम का श्लोक उद्धृत किया है । प्राचार्य समन्तभद्र के सम्बन्ध में उत्तरवर्ती प्राचार्यों, कवियों, विद्वानों ने और शिलालेखों में उनके यश का खुला गान किया गया है। आचार्य जिनसेन ने उन्हें कवियों को उत्पन्न करने वाला विधाता (ब्रह्मा) बतलाया है, और लिखा है कि उनके वज्रपातरूपी वचन से कुमतिरूपी पर्वत खण्ड-खण्ड हो गये थे।' कवि वादीभसिह सूरि ने समन्तभद्र मुनीश्वर का जयघोष करते हुए उन्हें सरस्वती की स्वच्छन्द विहार भूमि बतलाया है। और लिखा है कि उनके वचनरूपी वज्रनिपात से प्रतिपक्षी सिद्धान्तरूप पर्वतों की चोटियाँ खण्ड-खण्ड हो गई थी। समन्तभद्र के प्रागे प्रतिपक्षी सिद्धान्तों का कोई गौरव नहीं रह गया था। प्राचार्य जिनसेन ने समन्तभद्र के वचनों को वीर भगवान के वचनों के समान बतलाया है। १. नमः समन्तभद्राय महते कवि वेधसे । यद्वचो वचपातेन निभिन्ना कुमताद्रयः ॥ २. सरस्वती-स्वर-विहारभूमयः समन्तभद्र प्रमुखा मुनीश्वराः । जयन्ति वाग्वन-निपात-पारित-प्रतीप गद्धान्त महीध्रकोटयः ।। -गद्यचिन्तामणि ३. वचः समन्तभद्रस्य वीरस्येव विज भते ॥ -हरिवंश पुराण
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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