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________________ उमास्वाति (गृद्धपिच्छाचार्य ८७ समान जीवों को एकेन्द्रिय, घोंघे के समान जीवों को दो इन्द्रिय, चींटी के समान जीवों को तीन इन्द्रिय, केकड़े के समान जीवों को चौइन्द्रिय और बड़े प्राणियों के समान जीवों को पंचेन्द्रिय बताया है तथा मनुष्य के समान अन्य जीवों का यह विभाग अन्य दर्शनों में नहीं पाया जाता। अतः यह तमिल व्याकरण ग्रन्थ एक प्रामाणिक जैन विद्वान की कृति है। उमास्वाति (गृद्धपिच्छाचार्य) मूलसंघ की पट्टावली में कुन्दकुन्दाचार्य के बाद उमास्वामि (ति) चालीस वर्ष ८ दिन तक नन्दिसंघ के पट्ट पर रहे। श्रवणवेलगोल के ६५व शिलालेख में लिखा है तस्यान्वये भूविदिते बभूव यः पपनन्दि प्रथमाभिधानः । श्री कुन्दकुन्दादिमुनीश्वराख्यः सत्संयमादुद्गतचारणद्धिः ।।५ प्रभूदुमास्वाति मुनीश्वरोऽसावाचार्यशब्दोत्तरगृद्धपिच्छः । तदन्वये तत्सदृशोऽस्ति नान्यस्तात्कालिकाशेषपदार्थवेदी॥६ अर्थात् जिनचन्द्रस्वामी के जगत प्रसिद्ध अन्वय में 'पद्मनन्दी' प्रथम इस नाम को धारण करने वाले श्री कुन्दकुन्द नाम के मुनिराज हुए। जिन्हें सत्संयम के प्रभाव से चारणऋद्धि प्राप्त हुई थी। उन्हीं कुन्दकुन्द के अन्वय में उमास्वाति मुनिराज हए, जो गद्धपिच्छाचार्य नाम से प्रसिद्ध थे उस समय गद्धपिच्छाचार्य के समान समस्त पदार्थों को जानने वाला कोई दूसरा विद्वान नही था। श्रवणबेलगोल के २५८ वे शिलालेख में भी यही बात कही गई है। उनके वंशरूपी प्रसिद्ध खान से अनेक मुनिरूपरत्नों की माला प्रकट हुई । उसी मुनिरत्नमाला के बीच में मणि के समान कुन्दकुन्द के नाम से प्रसिद्ध प्रोजस्वी प्राचार्य हए। उन्हीं के पवित्र वश में समस्त पदार्थो के ज्ञाता उमास्वामि मूनि हए, जिन्होंने जिनागम को सूत्ररूप में ग्रथित किया। यह प्राणियों की रक्षा में अत्यन्त सावधान थे। अतएव उन्होंने मयूरपिच्छ के गिर जाने पर गद्धपिच्छों को धारण किया था। उसी समय से विद्वान लोग उन्हें गद्धपिच्छाचार्य कहने लगे। और गद्धपिच्छाचार्य उनका उपनाम रूढ़ हो गया। वीरसेनाचार्य ने अपनी धवला टीका में तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता को गृद्धपिच्छाचार्य लिखा है । प्राचार्य विद्यानन्द ने भी अपने श्लोक वार्तिक में उनका उल्लेख किया है। प्राचार्य पूज्यपाद ने सर्वार्थसिद्धि के प्रारम्भ में जो वर्णन किया है वह अत्यन्त मार्मिक है : "मुनिपरिषण्मध्ये सन्निषष्णं मूर्तमिव मोक्षमार्गमवाग्विसर्ग वपुषा निरूपयन्तं युक्त्यागम कुशलं परहित प्रतिपादनककार्यमार्य निषेव्यं निर्ग्रन्थाचार्यवर्यम्।" १. तदीयवंशा करतः प्रमिद्धादभूददोषा यति रत्नमाला । बभौ यदन्तर्मणिवन्मुनीन्द्र : स कुन्दकुन्दोदितचण्डदण्डः ।।१० अभूदुमास्वाति मुनिः पवित्र वशे तदीये सकलार्थवेदी। सूत्रीकृतं येन जिनप्रणीतं शास्त्रार्थजातं मुनिपुङ्गवेन ॥११ स प्राणिसंरक्षणेऽवधानो बभार योगी किल गृद्ध पिच्छान् । तदा प्रभृत्येव बुधा यमाहुराचार्यशब्दोत्तरगृद्धपिच्छम् ॥१२ २. तह गडपिच्छाइरियप्पयासिद तच्चत्थसुत्त वि-"वर्तना परिणामक्रियापरत्वापरत्वे च कालस्य ।" (धवला. ५०४ पृ० ३१६) ३. "एतेन गुद्धपिच्छाचार्य पर्यन्त मुनिसूत्रेण व्यभिचारिता निरस्ता प्रकृत सूत्रे"। तत्त्वार्थ श्लो० वा०प०६ - -
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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