SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 120
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८६ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ प्रो० हानले द्वारा सम्पादित नन्दिसंघ की पट्टावलियों के आधार से प्रो० चक्रवर्ती ने पंचास्तिकाय की प्रस्तावना में कुन्दकुन्द को पहली शताब्दी का विद्वान माना है। __ कुन्दकुन्दाचार्य के समय के सम्बन्ध में अनेक विद्वानों ने विचार किया है। उन सबके विचारों पर प्रवचनसार की विस्तृत प्रस्तावना में विचार किया गया है। अन्त में डा० आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्याय ने जो निष्कर्ष निकाला है, उसे नीचे दिया जाता है : वे लिखते हैं-'कन्टकन्ट के समय के सम्बन्ध में की गई इस लम्बी चर्चा के प्रकाश में जिसमें हमने उपलब्ध परम्पराओं की पूरी तरह से छानबीन करने तथा बिभिन्न दृष्टिकोणों मे समस्या का मूल्य प्रांकने के पश्चात् केवल संभावनाओं को समझने का प्रयत्न किया है-हमने देखा कि परम्परा उनका समय ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी का उत्तरार्ध और ईस्वी सन् की प्रथम शताब्दी का पूर्वार्ध बतलाती है । कुन्दकुन्द से पूर्व पट् खण्डागम की समाप्ति की सम्भावना उन्हें ईसा की दूसरी शताब्दी के मध्य के पश्चात् रखती है। मर्करा के ताम्रपत्र में उनको अन्तिम कालावधि तीसरी शताब्दी का मध्य होना चाहिए। चचित मर्यादाओं के प्रकाश में ये सम्भावनाएं-कि कुन्दकुन्द पल्लव वंशी राजा शिवस्कन्द के समकालीन थे और यदि कुछ और निश्चित आधारों पर यह प्रमाणित हो जाय कि वही एलाचार्य थे तो उन्होंने कुरल को रचा था, सूचित करती है कि ऊपर बतलाये गए विस्तृत प्रमाणों के प्रकाश में कुन्दकुन्द के समय की मर्यादा ईसा की प्रथम दो शताब्दियां होनी चाहिए। उपलब्ध सामग्री के इस विस्तृत पर्यवेक्षण के पश्चात् मैं विश्वास करता हूँ कि कुन्दकुन्द का समय ईस्वी सन् का प्रारम्भ है ॥ (प्रवचन० प्र० पृ० २२) इससे स्पष्ट है कि आचार्य कुन्दकुन्द ईसा की प्रथम शताब्दी के प्रारम्भ के विद्वान हैं । गुणवीर पंडित यह कलन्देके वाचानन्द मुनि के शिष्य थे। इन्होंने मलयपुर के नेमिनाथ मन्दिर में बैठकर 'नेमिनाथम्' नामक विशाल तमिल व्याकरण ग्रन्थ की रचना की थी। ग्रन्थ के प्रारम्भ के पद्यों में बतलाया है कि जल-प्रवाह के द्वारा मलयपूर जैन मन्दिर के विनाश होने के पूर्व यह ग्रन्थ रचा गया था। यह ग्रन्थ प्रसिद्ध वेणवा छंद में है। मदुरा के तमिल संगम के अधिकारियों ने इसे शेन तमिल नाम के पत्र में पुरातन टीका के साथ छपाया था। गुणवीर पण्डित का समय ईसा की प्रथम शताब्दी है। इसी से इनकी यह रचना ईस्वी सन् के प्रारम्भ काल की कही जाती है। तोलकप्पिय यह तमिल भाषा के व्याकरण का वेत्ता और रचयिता था। यह प्रसिद्ध वैयाकरण था। इसके रचे हुए व्याकरण का नाम तोल कप्पिय है। यह जैनधर्म का अनुयायी था। इन्द के संस्कृत व्याकरण में तोलकप्पिय का निर्देश है। इन्द्र का समय ३५० ई० पूर्व है। अत: प्राचीन व्याकरण तोलकप्पिय के समय की उत्तरावधि ३५० ई० पूर्व निश्चित होती है । मदुरा तमिल की पत्रिका की 'सेनतोमल' (जि० १८, १९१६-२०५० ३३६) में श्री एस वैयापुरिपिल्ले का एक लेख प्रकाशित हम उन्होंने लिखा था कि-'तोलकप्पिय जैनधर्मानुयायी था और इस सम्बन्ध में उनकी मुख्य दलील (युक्ति) यह थी कि तोलकप्पिय के समकालीन पनयारनार ने तोलकप्पिय को महान और प्रख्यात 'पडिमई' लिखा है। पडिमइ प्राकृत भाषा के 'पडिमा' शब्द से बनाया गया है । पडिमा (प्रतिमा) एक जैन शब्द है, जो जैनाचार के नियमो का सूचक है। श्री पिल्ले ने तोल कप्पियम के सत्रों का उद्धरण देकर लिखा है कि मरवियल विभाग में घास ओर वक्ष के १. मेकडोनल-हिस्ट्री ऑफ संस्कृत लिटरेचर पृ०११ २. स्टेडीज सा० इ० जैनिज्म प० ३६
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy