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________________ ८० जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग२ ज्ञानी ऐमा मानता है कि मैं एक उपयोग मात्र ज्ञान दर्शन रूप हूं। इनके अतिरिक्त अन्य परमाणु मात्र भी मेरा नहीं है। दूसरे कर्तृ कर्माधिकार में बतलाया है कि यद्यपि जीव और अजीव दोनो द्रव्य स्वतन्त्र है। तो भी जीव के परिणामो का निमित्त पाकर पुदगल कर्म वर्गणा स्वय कर्म रूप परिणत हो जाती हैं। ओर पूदगल कर्म के उदय का निमित्त पाकर जीव भी पारणमन करता है। तो भी जीव और पुदगल का परस्पर में कर्ता कर्मपना नही है। कारण कि जीव पुद्गल कर्म के किसी गुण का उत्पादक नही है और न पुद्गल जीव के किसी गुण का उत्पादक है । केवल अन्योन्य निमित्त से दोनों का परिणमन होता है। अतएव जीव मदा स्वकीय भावां का कर्ता है। वह कर्मकृत भावों का कर्ता नही है। किन्तु निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध के कारण वहारनय से जीव का पुदगल कर्मो का, और पदगल को जीव के भावो का कर्ता कहा जाता है। परन्तु निश्चयनय से जीव न पुद्गल कर्मो का कर्ता है और न भोता है। अब रह जाते है मिथ्यात्व, अज्ञान, अविरति, योग, मोह और काधादि उपाधि भाव, सो इन्हें कुन्दकुन्दाचार्य ने जीव-अजीव रूप दो प्रकार का बतलाया है। आत्मा जब अज्ञानादि रूप परिणमन करता है, तब राग-द्वष रूप भावो को करता है और उन भावों का स्वयकर्ता होता है। पर अज्ञानादि रूप भाव पुद्गल कर्मो के निमित्त के विना नही होते। किन्तु अज्ञानी जीव परके और प्रात्मा के भेद को न जानता हुया क्रोध को अपना मानता है, इसी से वह अज्ञानी अपने चैतन्य विकार रूप परिणाम का कर्ता होता है । और क्रोधादि उसके कर्म होते है। किन्तु जो जीव इस भेद को न जान कर क्रोधादि मे प्रात्मभाव नहीं करता, वह पर द्रव्य का कर्ता भी नही होता। तीसरे पृण्य-पापाधिकार में पाप की तरह पुण्य को भी हेय बतलाते हए लिखा है कि सोने की बेडी भी बांधती है और लोहे की वेडी भी बाधती है। अत: शुभ-अशुभ रूप दोनों ही कर्म बन्धक है। इसलिये उनका परित्याग करना ही श्रेयस्कर है। जिस तरह कोई पुरुष खोटी पादत वाले मनग्य को जानकर उसके साथ संसर्ग और राग करना छोड देता है। उसी तरह अपने स्वभाव में लीन पुरुष कर्म प्रकृतियों के शील स्वभाव को कुत्सित जानकर उनका मंसर्ग छोड़ देता है उनसे दूर रहने लगता है। रागी जीव कर्म बांधता है और विरागी कर्मों से छट जाता है । अत: शुभ-अशुभ कर्म में राग मत करो-राग का परित्याग करना आवश्यक है। अधिकार में बतलाया है कि जीव के राग-द्वेष और मोहरूप भाव, प्रास्रव भाव हैं। उनका निमित्त पाकर पीदगलिक कर्माण वर्गणाओं का जीव में प्रास्रव होता है। रागादि अज्ञानमय परिणाम हैं। अज्ञानमय परिणाम प्रज्ञानी के होते है। और ज्ञानी के ज्ञानमय परिणाम होते हैं। ज्ञानमय परिणाम होने में अज्ञानमय परिणाम रुक जाते हैं । इसलिये ज्ञानी जीव के कर्मों का आस्रव नहीं होता। अतएव बंध भी नही होता । पांचवे अधिकार में संवर तत्व का प्रतिपादन है। रागादि भावों के निरोध का नाम संवर है। रागादि भावों का निरोध हो जाने पर कर्मों का आना रुक जाता है। संवर का मूल कारण भेद विज्ञान है। उपयोग ज्ञान स्वरूप है, और क्रोधादि भाव जड़ है। इस कारण उपयोग में क्रोधादिभाव और कर्म नोकर्म नहीं हैं। और न श्रोधादि भावों में तथा कर्म नोकर्म में उपयोग है। इस तरह इनमें परमार्थ मे अत्यन्त भेद है। इस भेद तथा रहस्य को समझना ही भेद विज्ञान है । भेद विज्ञान से ही शुद्ध प्रात्मा की उपलब्धि होती है । और शुद्धात्मा की प्राप्ति से ही नों का प्रभाव होता है। और अध्यवसानों का प्रभाव होने से प्रास्रव का निरोध होता है। मानव के निरोध से कर्मों का निरोध होता है। और कर्म के अभाव में नो कर्मों का निरोध होता है और नो कर्मों के निगेध से संसार का निरोध हो जाता है। छठे निर्जरा अधिकार में बतलाया है कि सम्यग्दृष्टि जीव, इंद्रियों के द्वारा चेतन और अचेतन द्रव्यों का उपभोग करता है वह निर्जरा का कारण है । क्योंकि सम्यग्दृष्टि जीव के ज्ञान और नैराग्य की अद्भुत सामर्थ्य होती १. रनो बधादि कम्म मुचदि जीवो विगग मंपण्णो । रोमो जिगोवदेमी, तम्हा कम्मेसु मा रज्ज ॥१५०
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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