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________________ कुन्दकुन्दाचार्य ७६ की चर्चा से मौलिक और विशिष्ट है। इसमें द्रव्य के सत उत्पाद व्यय ध्रौव्यात्मक और गुण पर्यायात्मक रूप लक्षणों का प्रतिपादन तथा समन्वय, प्रात्मा के कर्तृत्वाकर्तत्व का विचार तथा कालाण अप्रदेशित्व का महत्वपूर्ण कथन किया गया है । तृतीय श्रुतस्कन्ध में चारित्र का वर्णन किया है। प्रात्मा की मोहादिजन्य विकारों से रहित परिणति चारित्र है, वही चारित्र धर्म है। चारित्र रूप धर्म से परिणत आत्मा यदि शुद्धोपयोग से युक्त है तो वह निर्वाण सुख को पा लेता है । निर्वाण मुख अतीन्द्रिय है। वह कर्मक्षय के प्रभाव से मिलता है । प्रात्मोत्थ है, विषयों से रहित पम है, और अनन्त है, उसका कभी विनाश नहीं होता। किन्तु इन्द्रिय जन्य सांसारिक सुख पराधीन है, बाधा सहित है-उसमें क्षुधा-तृपादि की बाधाएँ उत्पन्न होती रहती हैं। वह विषम है और बन्ध का कारण है। ग्रन्थ में श्रमणों के प्राचार को महत्वपूर्ण बतलाया गया है। श्रमण का स्वरूप बतलाते हए कहा गया है कि-जिसके शत्रु और मित्र एक ममान हैं । सुख और दुःख में समान है, प्रशंसा और विकारों में समान है, लोह और कंचन में समान है । जो जीवन और मरण में समता-समान भाव वाला है, वही श्रमण है। मोह से रहित आत्मा के सम्यक स्वरूप को प्राप्त हुआ जीव यदि गग और द्वेष का परित्याग करता है तो वह शुद्धात्मा को प्राप्त करता है। आज तक जितने अरहत हए हैं वे भी इसी विधि से कर्मों को नष्ट कर निर्वाण को प्राप्त हए हैं। समय प्राभृत इस ग्रन्थ पर प्राचार्य अमृतचन्द्र की 'तत्वप्रदीपिका' टीका और जयसेन की तात्पर्यवत्ति, और बालचन्द्र अध्यात्मीकी टीकाएँ उपलब्ध है, जिनमें ग्रन्थ के दिव्य सन्दर्भ का सुन्दर विवेचन किया गया है। इस ग्रन्थ का नाम समय प्राभूत है। इसमें शुद्ध प्रात्मतत्त्व का प्रतिपादन किया गया है। इसके विषय का प्रतिपादक ग्रन्थ अखिल वाङमय में दूमग नहीं है । इसमें सबसे पहले सिद्धों को नमस्कार किया गया है, जो पदार्थों को एक साथ जाने अथवा गुण पर्याय रूप परिणमन करे वह समय है। समय के दो भेद हैं-स्वसमय और परसमय । जो जीव अपने दर्शन ज्ञान चारित्र रूप स्वभाव में स्थित हो वह स्व समय है। और जो पुद्गल कर्मों की दशा को अपनी दशा माने हए है वह परसमय है। तीसरी गाथा में बतलाया है कि एकत्व विभक्त वस्तु ही लोक में सन्दर होती है। प्रतः जीव के बन्ध की कथा से विसंवाद उत्पन्न होता है। काम भोग सम्बन्धी बन्ध की कथा तो सब लोगों की सुनी हुई है, परिचय में आई है अतएव अनुभूत है किन्तु बन्ध से भिन्न प्रात्मा का एकत्व न कभी सुना, न कभी परिचय में पाया है और न अनुभूत ही है । अतः वह सुलभ नही है। उसी एकत्व विभक्त आत्मा का कथन निश्चय नय और व्यवहारनय से किया गया है। किन्तु निश्चयनय भूताथ, और व्यवहारनय अभूताथ है। इस बात को प्राचार्य महोदय ने उदाहरण देकर समझाया है। ग्रन्थ दश अधिकारों में विभाजित है-१. पूर्व रंग, २. जीवाजीवाधिकार, ३. कर्तृ कर्माधिकार, ४. पुण्य पापाधिकार, ५. प्रास्रवाधिकार, ६. संवाराधिकार, ७. निर्जराधिकार, ८. बन्धाधिकार, 8. मोक्षाधिकार, १०. और सर्वविशुद्ध ज्ञानाधिकार। समय प्रामत की १३ वी गाथा में बतलाया है कि भूतार्थनय से जाने गये जीव, अजीव, आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष सम्यक्त्व है । अतएव भूतार्थनय से ही इनका विवेचन ग्रन्थ में किया गया है। जीवा जीवाधिकार में जीव-अजीव के भेद को दिखलाते हुए दोनों के यथार्थ स्वरूप का प्रतिपादन किया है। और बतलाया है कि जीव के वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श नहीं हैं और न वह शब्द रूप ही है। उसका लक्षण चेतना उसका प्राकार भी नियत नहीं है। और इन्द्रियादिक से उसका ग्रहण नहीं होता। किन्तु प्रात्मा को न जानने वाले प्रात्मा से भिन्न परभावों को भी संयोग सम्बन्ध के कारण आत्मा समझ लेते हैं। कोई राग-द्वेष को कोई कर्म को. कोई कर्म फल को, शरीर को और कोई अध्यवसानादि रूप भावों को जीव कहते हैं। पर ये सब जीव नहीं हैं। क्योंकि ये सब कर्म रूप पुदगल द्रव्य के निमित्त से होने वाले भाव हैं। अत: वे पुद्गल द्रव्य रूप हैं। जीव स्थानों और गुण स्थानों प्रादि को जीव कहा गया है वह व्यवहार से कहा गया है। क्योंकि व्यवहार का प्राश्रय लिये बिना परमार्थ का कथन करना शक्य नहीं है। प्रतएव इन सब आगन्तुक भावों से ममत्व बुद्धि का परित्याग कर
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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