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________________ जनदर्शन : जीवन और जगत् ० पुद्गल मूर्त है, शेष अमूर्त हैं । ० आकाश लोक-अलोक में व्याप्त है, शेष द्रव्य लोक-परिमित हैं। • जीव और पुद्गल गतिशील हैं, शेष गति-शून्य हैं । • जीव और पुद्गल अनन्त-अनन्त द्रव्य है, शेष एक-एक द्रव्य हैं। चार अस्तिकाय प्रदेश-परिमाण से तुल्य है-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, लोकाकाश और एक जीव । (ठाण-४/४९५) चार अस्तिकायो से समूचा लोक स्पृष्ट-व्याप्त है-धर्मास्तिकाय से, अधर्मास्तिकाय से, जीवास्तिकाय से और पुद्गलास्तिकाय से ।। (ठाण४/४९३) चार कारणो से जीव और पुद्गल लोक से बाहर नहीं जातेगति के अभाव से, निरूपग्रहता-गति तत्त्व का आलम्बन न होने से, रुक्ष होने से तथा लोकानुभाव से-लोक की सहज मर्यादा होने से। (ठाण-४/४९८) तत्त्व बोध की यात्रा में षद्रव्यवाद का यह बोध-पाठ जिज्ञासा की नई खिडकिया खोलेगा तथा तत्व-रुचि की रश्मिया उसमें से निर्वाध प्रवेश पा सकेंगी, ऐसा विश्वास है ।
SR No.010225
Book TitleJain Dharm Jivan aur Jagat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakshreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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