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________________ जैनदर्शन : जीवन और जगत् सपूर्ण विश्व-व्यवस्था मे ये दोनो द्रव्य अहभूमिका रखते हैं । एक ससार की सक्रियता का माध्यम है तो दूसरा निष्क्रियता का । धर्मो गति स्वभाव अथाऽधर्मः स्थिति लक्षण । तयोर्योगात्पदार्थाना गति-स्थिती रूदाहृते । (-सबोधि) जीव और पुद्गन की गति-स्थिति क्रमश धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय पर ही निभर है। आकाश द्रव्य का अस्तित्व प्राय सभी दार्शनिक और वैज्ञानिक स्वीकार करते हैं, किंतु धर्म और अधर्म की मीमासा जन-दर्शन की मौलिक देन है । ये दोनो द्रव्य लोक-परिमित हैं। अलोक मे इनका सर्वथा अभाव है, इसलिए ये लोक और अलोक के विभाजक तत्त्व भी हैं । धर्म और अधर्म के अभाव के कारण ही अलोक मे जीव तथा पुद्गलो की सत्ता, गति और अवस्थिति नही है। आकाशास्तिकाय-(space, medium of location of soul etc) अवगाह लक्षण आकाश --आश्रय देने वाला द्रव्य आकाशास्तिकाय है । यह चराचर जगत् आकाश के आधार पर ही टिका हुआ है । आकाश के दो भेद हैं-लोक और अलोक । जो आकाश षड्द्रव्यात्मक है, वह लोक है। जहां आकाश के सिवाय अन्य कोई द्रव्य नही होता वह अलोकाकाश है । विज्ञान ने परमाण के भीतर ऋणावेशी (नेगेटिव) कणो की खोज की है तो घनावेशी (पोजीटिव) कणो की भी खोज की है। प्रत्येक कण के साथ एक प्रतिकण का भी अस्तित्व है । यह विश्व सप्रतिपक्ष है। प्रतिपक्ष के बिना पक्ष का भी कोई अस्तित्व या मूल्य नही रह जाता है । एक परमाणु मे अनेक प्रतिपक्षी गुण-धर्म रहते है। परमाणु के भीतर ऋणावेशी इलेक्ट्रोन है तो उसका प्रतिकण घनावेशी प्रोट्रॉन भी है। इस प्रकार यदि परमाणु के भीतर कणो और प्रतिकणो का अस्तित्व है तो ब्रह्माड मे भी विश्व तथा प्रतिविश्व होना चाहिए । वैज्ञानिक अभी तक इस सदर्भ में किसी निर्णायक स्थिति मे नही पहुचे हैं, पर जैन-दर्शन इस माने में बहुत ही स्पष्ट है। उसे प्रारम्भ से ही लोक और अलोक का अस्तित्व मान्य है। काल-(Time) काल समयादि --समय आदि को काल कहते हैं । समय काल का सूक्ष्मतम अश है । काल अप्रदेशी है, अवयव रहित है । छह द्रव्यो मे काल की गणना औपचारिक रूप से की गई है। वास्तविक दष्टि से काल द्रव्य न होकर जीव-अजीव की पर्याय मात्र है। फिर भी प्रत्येक पदार्थ मे घटित होने वाले परिवर्तन का हेतु काल ही है, इसलिए व्यावहारिक दृष्टि से वह
SR No.010225
Book TitleJain Dharm Jivan aur Jagat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakshreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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