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________________ जैनधर्म . जीवन और जगत् की इच्छा करता है । भौतिक सुखो की इच्छा करना पाप है-बन्धन का हेतु पुण्य से वैभव, वैभव से मद, मद से मूढता और मूढता से पाप का आचरण होता है । पाप दु ख का हेतु है । इस प्रकार पुण्य की परम्परा दुख -गभित है। पुण्य की आकाक्षा वे ही करते हैं, जो परमार्थ से अनभिज्ञ कतिपय धार्मिक परम्पराए पुण्य के लिए सत्क्रिया का समर्थन करती हैं । आचार्य श्री भिक्षु ने इस मान्यता को स्वीकृति नहीं दी। आगमिक आधार पर उन्होने सिद्ध किया कि धर्म के बिना पूण्य का स्वतत्र बन्धन नही होता तथा पुण्य की इच्छा से धर्म करना अनुचित है। उन्होने कहा-जो पुण्य की कामना से तप साधना आदि करते हैं, वे मक्रिया के सुफल से वचित रह जाते हैं। पुण्य चतु स्पर्शी-कर्म-पुद्गल हैं । जो उसकी इच्छा करते हैं वे मूढ हैं । वे धर्म और कर्म के मर्म को नहीं समझते । पुण्योदय से होने वाले भौतिक सुखो मे जो प्रसन्न तथा अनुरक्त होते हैं वे कर्म का सग्रह करते हैं। दुख-परम्परा को आगे बढाते हैं। निश्चय दृष्टि से देखा जाए तो पुण्य की अभिलाषा करने वाला भोगो की अभिलाषा करता है । भोग नरक, तिथंच आदि गतिचक्र मे परिभ्रमण का हेतु है । श्रीमज्जयाचार्य ने लिखा है-पुण्य की इच्छा मत करो, वह खुजली रोग जैसा है, जो प्रारम्भ मे प्रिय लगता है, किन्तु उसका परिणाम विरस है। स्वर्ग, चक्रवर्ती आदि के सुख-भोग भी नश्वर हैं । जैन आगमो ने गाया - ऐहिक या पारलौकिक कामना की पूर्ति के लिए तथा यश-प्रतिष्ठा आदि की प्राप्ति के लिए तप मत करो । वह मात्र निरा के लिए करो। वेदात के आचार्यों ने कहा-मोक्षार्थी को काम्य और निषिद्ध दोनो ही प्रकार के कर्म मे प्रवृत्त नही होना चाहिए । यहा काम्य और निषिद्ध कर्म का वाच्यार्थ पुण्य और पाप ही है। सामान्यत पुण्य काम्य है और पाप निपिद्ध । अध्यात्म के तीर्थयात्री के लिए दोनो वर्ण्य हैं । जैन-दर्शन के अनुसार पुण्य और पाप के क्षय से मुक्ति होती है । कर्मक्षय के लिए अकर्म वनना आवश्यक है । प्रवृत्ति-निरोध से कम-निरोध होता है। साधना के प्रारम्भ मे अमत्कर्म का निरोध होता है। एक भूमिका तक पहुचने के पश्चात् सत्कर्म का भी निरोध हो जाता है । यही कर्म-क्षय की प्रक्रिया है यही दुख-क्षय का उपाय है । भगवान् महावीर ने 'सूयगडो' सूत्र में पहा न कम्मुणा कम्म खति वाला । अकम्मुणा कम्म खति धीरा ॥
SR No.010225
Book TitleJain Dharm Jivan aur Jagat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakshreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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