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________________ पुण्य और पाप मोहनीय और अतराय ये अशुभ कम हैं । शेप चार कर्म शुभ, अशुभ दोनो हैं । अणुभ कर्मों की उदयावस्या पाप है । उपचार से पाप कर्म-बन्धन के हेतु भी पाप कहलाते हैं। वे मुख्यत अठारह हैं, जैसे-१ प्राणातिपात पाप, २ मृपावाद पाप, ३ अदत्तादान पाप, ४ मैथुन पाप, ५ परिग्रह पाप, ६ माघ पाप, ७ मान पाप, ८ माया पाप, ९ लोभ पाप, १० राग पाप, ११ उप पाप, १२ कलह पाप, १३ अभ्याख्यान पाप, १४ पैशुन्य पाप, १५ पर-परिवाद पाप, १६ रति-अरति पाप, १७ माया मृषा पाप और १८ मिथ्यादर्शनशल्य पाप । जिमके उदय से आत्मा अशुभ प्रवृत्ति मे प्रेरित होती है, वह मोहनीय कर्म भी पाप कहलाता है । जैसे-जिस मोहोदय से प्राणी हिंसा के लिए प्रेरित होता है, वह प्राणातिपात पाप कहलाता है। जव असत्य मे प्रवृत्त होता है तब वह मृपावाद-पाप कहलाता है । जैसे - धर्म और पुण्य भिन्न हैं। वमे ही अधर्म और पाप भी भिन्न हैं । अधर्म असत् प्रवृत्ति है और पाप उसके द्वारा आकृष्ट अशुभ कर्मों की उदयावस्था है । अधर्म चेतना की वैभाविक परिणति है और पाप कर्म-पुद्गलो की परिणति है। शुभ-अशुभ कर्मों की वद्धावस्था क्रमश द्रव्य पुण्य-पाप है और उदयावस्था भाव पुण्य-पाप । कम-पुद्गल जव तक उदय मे नही आते, फलशून्य रहते हैं, तब तक "वन्ध" कहलाते हैं । जब उदय मे आकर चेतना को प्रभावित करने लगते हैं तव पुण्य-पाप कहलाते हैं। पुण्य-पाप-दोनो बन्धन हैं व्यवहार के धरातल पर पुण्य काम्य और पाप अकाम्य माना जाता है। हर अध्यात्म की भूमिका मे ये दोनो ही त्याज्य हैं । पुण्य और पापये दोनो ही पौद्गलिक होने के कारण आत्मोदय के वाधक तत्त्व हैं। दोनो वन्धन हैं। दोनो वेडिया है । अतर इतना ही है कि पुण्य सोने की वेडी है जोर पाप लोहे की वेडी । पर वेडी आखिर ही है। बन्धन का हेतु है। सी प्रकार पुष्प और पाप दोनो बन्धन हैं, मुक्ति के वाधक हैं। पुण्य की कामना पाप यापि पुण्य का वन्धन मत्क्रिया के द्वारा होता है, शुभ योगो की प्रबत्तिने होता है । भयोग में निर्जरा होती है और साथ मे पुण्य का वधन तो होता है । लेकिन पुण्य के लिए सक्रिया करना मध्यात्म-साधक के लिए पिरित नरी है। साधा तप साधना लादि नात्म-शुद्धि के लिए करे, निर्जरा लिए पारे, पर पुष्य की कामना से न करे। क्योकि पुण्य मुक्ति का साधत सीप -- --- - - -
SR No.010225
Book TitleJain Dharm Jivan aur Jagat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakshreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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