SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 77
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पूर्वजन्म और पुनर्जन्म तो नही कहा जा सकता, फिर भी पुनर्जन्म की मान्यता वहा सर्व-सम्मत भी नही है। ईसा के जन्म से दो सौ वर्ष पुराने और उस समय के शक्तिशाली धम-सम्प्रदाय --- "एमेनेसेस" धर्मावलवियो मे जीव के शुभ-अशुभ कृत्यो के फल भोगने की मान्यता रही है । ईसाई मत पर इस मान्यता का प्रभाव भी पड़ा है। एक जन्माध व्यक्ति को ईसा के सामने प्रस्तुत किया गया। ईसा ने इसे पूर्व जन्म के अपराधो का फल बताया। पुनर्जन्म को न मानने वाले इस्लाम आदि धर्मानुयायी देशो की ऐसी अनेक घटनाए सामने आई हैं जो आधुनिक अन्वेषका को पुनर्जन्म के सवध मे पुनचितन करने के लिए प्रेरित करती हैं। उन देशो मे ऐसे अनेक व्यक्ति पाए गए हैं जो अपने पूर्वजन्म की घटनाओ का सही-सही वर्णन करते हैं । डॉ स्टीवन्सन ने पूर्वजन्म से सबधित जिन सात सौ घटनाओ का आकलन और वैज्ञानिक अध्ययन किया है उनमे अनेक ईसाई और इस्लाम धर्मानुयायी भी है। दूसरी बात यह है कि ईसाई और इस्लाम आचार-दर्शन यह तो मानता ही है कि व्यक्ति अपने नैतिक शुभाशुभ कृत्यो का फल अनिवार्यतया प्राप्त करता है । यदि वह इस जीवन मे पूरा फल न भोग सके तो वह मरण के वाद भोगता है। इस प्रकार के सिद्धातो के आधार पर चाहे अनचाहे वे मरणोत्तर जीवन को स्वीकार कर ही लेते है । पाश्चात्य दार्शनिक और वैज्ञानिक नवीन पाश्चात्य दार्शनिक शापनहावर की दृष्टि मे पुनर्जन्म नि सदिग्ध तत्त्व है । उन्होने इतनी सहजता से स्वीकार किया है कि मेरा अनुभव ऐसा है कि पुनर्जन्म के बारे में जो भी पहले-पहल सुनता है उसे भी उसका अस्तित्व स्पष्ट हो जाता है ।। आधुनिक युग के अनेक परामनोवैज्ञानिको तथा भूतविद्या के शीर्षस्य जानकारो ने ऐसे प्रमाण एकत्रित किये हैं जो मृत्यु के बाद भी जीवन के अस्तित्व को वास्तविक बताते हैं । पामस हपनले, राबर्ट मायस और डॉ० जे० वी० राइन जैसे विख्यात पश्चिमी चितको ने नात्मा के जनस्वर रूप और मरणोपरात जीवन की स्थिति में अपना विश्वास प्रपट किया है। वतमान युा देवल मान्यता पा वा दाशनिक स्थापनानो का युग नहीं है। पर वजानिक पुरा है । प्रयोग और परीक्षण का युग है। उसी सिद्धात सो युग की स्वीकृति प्राप्त होती है जो प्रायोगिक हा। हजारो शतान्दियो
SR No.010225
Book TitleJain Dharm Jivan aur Jagat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakshreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy