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________________ ५८ जैनधर्म जीवन और जगत् मिश्र और यूनानी परंपराएं भारत की तरह मिश्र और यूनान की प्राचीन परम्पराओ मे भी आत्मा के आवागमन का सिद्धात मान्य रहा है। विश्व मे इतिहास जनक माने जाने वाले यूनानी इतिहासवेत्ता हेरोडोट्स का मत है कि आत्मा के आवागमन के सिद्धात का प्रस्तोता होने के कारण पुनर्जन्मवाद की मान्यता का चाहे वह अविकसित रूप मे ही क्यो न हो मिश्र ही आदि स्रोत रहा है । मिश्र के विचारको ने ही सर्वप्रथम जीवात्मा की अविनश्वरता की कल्पना की है। यहा तक कि यूनान के दार्शनिको ने आत्मा के आवागमन के सिद्धात को मिश्र से ही सीखा और कालातर मे आत्मसात् कर लिया । यूनानी दार्शनिक प्लेटो की भाषा इस तथ्य को प्रतिध्वनित कर रही है । उन्होने कहा-"मात्मा सदा नये-नये वस्त्र बुनती है। तथा उसमे एक ऐसी नैसर्गिक शक्ति है जो ध्रुव रहती है और अनेक बार जन्म लेती है।" यह दूसरी बात है कि मिश्र वाले आत्मा को शरीर की छाया मात्र मानते थे । उसका स्वतत्र अस्तित्व नही मानते थे। इसलिए आत्मा के अमरत्व को स्थायी रखने के लिए ही मिश्र मे शव-परिरक्षण की प्रथा रही है । उनका विश्वास है कि मृत्यु के पश्चात् आत्मा अबाध रूप से कही भी आ जा सकती है, लेकिन उसे वही लौट आना पडता है, जहा उसका शव रखा हुआ होता है। ईसा के एक हजार वर्ष पूर्व वेबीलोन के दक्षिण हिस्से पर शासन करने वाली चाल्डर्स जाति के लोगों का भी यही विश्वास था। उनकी मान्यता थी कि मत शरीर के नष्ट कर दिए जाने पर आत्मा भी नष्ट हो जाती है.। आदमी के मर जाने पर भी यदि शरीर सुरक्षित है तो आत्मा भी सुरक्षित रहती है । इसलिए उनमे भी शव-परिरक्षण की प्रथा थी। वे मृत शरीर के पुनरुत्थान और उनमे नव-जीवन के सचार मे विश्वास रखते थे। मुर्दे को फूलो से ढक कर गाडने की प्रथा के पीछे परलोक का विश्वास काम करता था। मरणोपरात जीवन के अस्तित्व की मान्यता ही इसका कारण हो सकती है। ईसाई और इस्लाम परम्पराएं ईसाई-धर्म पुनर्जन्म को नही मानता। किन्तु अनेक अग्रेज विद्वानो एव वैज्ञानिको ने सैद्धातिक रूप से पुनर्जन्म को स्वीकार किया है। सुप्रसिद्ध अग्रेज कवि वर्डसवर्थ ने अपनी कविता “अमरत्व की कृति" मे लिखा है"जो आत्मा जीवन-नक्षत्र की भाति हमारे साथ उत्पन्न होती है, उसका कही अन्यत्र भी उद्भव है।" ईसाई मत मे पुनर्जन्म की मान्यता है ही नही ऐसा
SR No.010225
Book TitleJain Dharm Jivan aur Jagat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakshreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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