SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 58
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनधर्म : जीवन और जगत् इन्द्रिय पर्याप्ति इन्द्रिय प्राण श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति श्वासोच्छ्वास प्राण भाषा पर्याप्ति वचनवल प्राण मन पर्याप्ति मनोबल प्राण इम प्रकार उक्त पर्याप्तिया और प्राण सापेक्ष है। प्राण जीवन-शक्ति है और पर्याप्ति भौतिक-शक्ति । जीवन-शक्ति को गा पोद्गलिक शक्ति की अपेक्षा रहती है । इसलिये प्रत्येक प्राणी नये जन्म के प्रारम्भ मे ही अनेक प्रकार की पोदगलिक शक्तियो की रचना करता है। जमे पर्याप्तिया सब जीवो में समान नहीं होती, वैसे ही प्राण-शक्तिया भी मय मे बराबर नहीं होती । तथापि जीने के लिए कम से कम चार प्राणशक्तिया तो अवश्य होती हैं । शरीर, श्वास-उच्छ्वास, आयुष्य और स्पर्शन इन्द्रिय -ये चार जीवनी-शक्तिया प्राणी-जगत के जीवन हेत आधारभूत मानी जाती हैं । अर्थात् जीवन-यापन के लिये कम से कम चार प्राण-शक्तियो का होना तो जारी है । जैन जीव-विज्ञान के अनुसार सबसे कम विकसित चेतना वाले जीव हैं-एकेन्द्रिय-~~पाच स्थावर निकाय के जीव । उनमे चार प्राण है। उसके आगे चेतना का जितना-जितना अधिक विकास होता है, मीन्द्रिय आदि जीवो मे प्राण-शक्तिया भी क्रमश विकसित होती हैं । सज्ञी पनेन्द्रिय जीवो को दमी प्राण-शक्तिया उपलब्ध हो जाती हैं। प्रश्न होता है, तात्विक दृष्टि से पर्याप्तियो और प्राण-शक्तियो को जान लेने गे या हमारे अस्तित्व और व्यक्तित्व के विकास की नई दिशाए उघाटित हो मरती है? प्रेक्षा-ध्यान और जीवन विज्ञान के परिप्रेक्ष्य में इस प्रश्न का उत्तर मागत्मक दिया जा सकता है। उमन शक्ति-योतो और शक्ति-वेन्द्रो के विकास मे ही विकास की ममग्न दिशाए प्रफुटित होती है, प्रपर होती हैं और परिष्कृत होती हैं । मगे शारीरिक, मानमिर, भावनात्मक और आध्यात्मिक विकास की ऊनाक्ष्यो गोहागिन किया जा सकता है हमारे प्रत्येक कार्यक्षेत्र की सफलता माधारभूत तत्व पन्छा शक्ति का सिाग, मकरप पति का विकाम, ग्रा चीनक्ति या बिजाग~~य मारे प्राण ऊर्जा विकास पर निर्भर हैं। प्रामापीरी विद्या का है। आधुनिक विज्ञान यात्रिय विकास और पिर पिसाग का लोन पिनीयशनि, ता विकाग दी है। मप्यूटर, रपट तर गोट गाविताग मी विटनी चमनार है। दर्शनमगार सभी प्राणियों में ग्राम श्री पनि प्राप्त है, पर यिता मंत्र में नहीं होती । मनुष्य ही पर गा प्राणी है, T' ना ना ना, बिन मा पर्यापन सिमर नये
SR No.010225
Book TitleJain Dharm Jivan aur Jagat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakshreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy