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________________ महान् जैन नरेश . मगध सम्राट् श्रेणिक १६३ शक्ति जोर प्रभाव को बढ़ाने का सुन्दर अवसर प्राप्त हो गया और उस समय उम अवसर का लाभ उन्होने अत्यन्त विलक्षणता से उठाया । वे अपने देश की शाति-सुव्यवस्था और समृद्धि के लिए बहुत जागरूक थे । अनेक विदेशी राज्यो के साथ भी उन्होने मैत्री सम्वन्ध स्थापित किए और भगवान् महावीर का मंगल सदेश भी वहा तक पहुचाया । ईरानी सम्राट कुरुप ( ई० पू० ५५६-५३१ ) के साथ तो उनके मंत्री - सम्वन्ध काफी प्रगाढ थे । उसके साथ राजनैतिक आदान-प्रदान भी हुआ करता था । सम्राट कुरूप का एक पुत्र आर्द्रकुमार राजकुमार अभय का मिश्र था । अभय ने जैन मुनियो या श्रावको के काम मे आने वाले कतिपय धर्मउपकरण आर्द्रकुमार को प्रेमोपहार मे भेजे, जिससे प्रतिबुद्ध होकर वह राजगृह आया और भगवान् महावीर का शिष्य वन गया। आर्द्रकुमार की प्रज्ञा निर्मल थी । वह तार्किक और सिद्धातवादी भी था अन्यतीर्थियो के साथ उसके निर्भय चर्चा प्रसग जैनागमो में काफी मात्रा मे उपलब्ध हैं । सम्राट् श्रेणिक ने विभिन्न व्यवसायो व्यापारो और उद्योगो को विभिन्न श्रेणियो या निगमो मे संगठित किया । कहते हैं इसी कारण से उनका नाम श्रेणिक प्रचलित हुआ । उन्होंने कई ऐसी सस्थाओं की प्रतिष्ठा की जो जनतन्त्रात्मक पद्धति से अपनी प्रवृत्तियो को पूर्ण स्वतन्त्रता से चलाती थी । राज्य द्वारा भी मगध साम्राज्य के व्यवसाय मोर उद्योग - घधो को भारी प्रोत्साहन मिला था । वे श्रेणिया ही आगे चलकर विविध जातियो मे परिणत हुई - ऐसा अनेक विद्वानो का अभिमत है । सम्राट् श्रेणिक एक कुशल शासक थे । जैन - साहित्य के अध्ययन से पता चलता है कि उनके राज्य मे किसी प्रकार की अनीति और भय नही था । प्रजा शान्त, सुखी और धार्मिक थी। राजा श्रेणिक जनपदो के प्रतिपालक और प्रजा - वत्सल थे । वे दयाशील, मर्यादाशील, दानवीर, और महान् निर्माता थे । उन्होने अपनी राजधानी राजगृह का नव निर्माण किया थা। श्रेणिक ने ५२ वर्ष पर्यन्त मगध का शासन किया। उनके नेतृत्व मे मगध ने सर्वांगीण प्रगति की । उनके शासन काल मे जैन धर्म का अभूतपूर्व उत्कर्ष हुआ । अन्त मे श्रेणिक ने चेलना से उत्पन्न अपने पुत्र कूणिक (भजातशत्रु) को राज-पाट सौंप कर एकात मे धर्म- ध्यान पूर्वक शेष जीवन विताने का निश्चय किया । बौद्ध भिक्षु देवदत्त के बहकाने पर कूणिक ने अपने पिता को बन्दी बना लिया और स्वयं राजगद्दी पर बैठ गया ।
SR No.010225
Book TitleJain Dharm Jivan aur Jagat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakshreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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