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________________ आवेपत्य पर उप .. ऐपयोजक भिक्षु चेतना परिपद,गगाशहर जैनधर्म . जीवन और जगत एक बार उन्होने पूरे नगर मे उद्घोषणा करवायी कि "कोई भी व्यक्ति भगवान् महावीर के शासन मे दीक्षित होना चाहे, वह खुशी से ऐसा कर सकता है। उसके दीक्षा-महोत्सव की पूरी व्यवस्था मैं करूगा। यदि किसी के भरण-पोषण करने योग्य कुटम्ब परिवार न हो तो उसके भरणपोषण की चिंता और व्यवस्था स्वय मैं करूगा।" राजा श्रेणिक की इस घोषणा का बहुत ही सुन्दर प्रभाव पड़ा। उनके अनेक राजकुमार, राजरानिया तथा अन्य मुमुक्षु नागरिक सोत्साह सयम-पथ पर अग्रसर हुए। उपरोक्त दीक्षा-समारोहो मे सम्राट् स्वय उपस्थित रहते थे। उन मगलमय दृश्यो को देखकर वे हार्दिक प्रसन्नता का अनुभव करते थे। इससे पूर्व भी श्रेणिक अपने मेधावी, होनहार प्रतिभा सम्पन्न एव प्रशासनिक व्यवस्थाओ मे अनन्य सहयोगी राजकुमार अभय, (जो उनका महामत्री भी था) को तथा मेघकुमार, नन्दीसेन आदि अनेक राजकुमारो को धर्मसघ मे समर्पित कर चुके थे । ___सम्राट् श्रेणिक की जैन शासन के प्रति आतरिक अभिरुचि, जैन सिद्धातो के प्रति अटूट आस्था तथा भगवान् महावीर के प्रति अपूर्व भक्ति सचमुच ही जैन-धर्म की प्रभावना का प्रबल निमित्त बनी थी। जैन-धर्म के प्रचार-प्रसार मे सम्राट् की भूमिका बहुत ही महत्त्वपूर्ण रही । राजा की इस धर्मानुरागिता से उनकी प्रजा प्रभावित हुए बिना कैसे रह सकती थी। यही कारण था श्रेणिक के युग मे राजगृह जैन धर्म का प्रमुख केन्द्र बन गया था । उनके प्रभाव से जहा राजपरिवार जैन धर्म से अनुरक्त हुआ, उसके वरिष्ठ सदस्य महावीर के सदस्य बने, वहा धन्ना और शालिभद्र जैसे धन-कुवेर और सम्मान्य श्रेष्ठी-पुत्रो ने भी उनके सघ की आतरिक सदस्यता स्वीकार की। रोहिणेय चोर की जीवन-दिशा बदली तो एक लकडहारे का जीवन भी दिव्य आलोक से जगमगा उठा। श्रेणिक एक महाप्रतापी और विजयी सम्राट थे। उन्होने अपनी प्रशासनिक कुशलता, राजनीतिज्ञता, दूरदर्शिता और पुरुषार्थ-परायणता से अपने साम्राज्य का विस्तार किया, उसे शक्तिशाली बनाया । तत्कालीन शक्ति-सम्पन्न राजाओ एव राज्यो के साथ उन्होने मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध स्थापित कर लिए थे। यद्यपि अवन्ती-नरेश चण्डप्रद्योत उनका प्रबल प्रतिद्वन्द्वी या । लेकिन वह काफी दूर था। मगध की बढती हुई शक्ति को रोकने का साहस वह नही कर सकता था। इसलिए श्रेणिक को अपनी
SR No.010225
Book TitleJain Dharm Jivan aur Jagat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakshreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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