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________________ वैशाली गणणत्र के अध्यक्ष जैन सम्राट् चेटक १५३ और प्रख्यात गणतत्रीय राष्ट्र था । उसका विधि-विधान आज की जनतत्रीय प्रणाली से बहुत कुछ मिलता-जुलता था। जनता या नागरिको के प्रतिनिधि राजा कहलाते थे। उनका स्थान वर्तमान के ससद-सदस्यो-विधायको के समकक्ष था । वे वैशाली के सथागार मे बैठकर गणतत्रीय पद्धति से राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक आदि समस्याओ पर विचार-विमर्श करते थे । गणराज्य की सचालन-विधियो के मुख्य केन्द्र सथागार होते थे। वे प्रमुख नगरो मे होते थे । गण-भवनो मे केन्द्रीय अधिवेशन होते थे। यह सथागार वस्तुत लोकसभा का ही पूर्व रूप कहा जा सकता है। सथागारो मे पारित अधिनियमो को ही राजा तथा मत्रीमडल क्रियान्वित करता था। राष्ट्रीय, अन्तर्राष्ट्रीय, नागरिक, सामाजिक, आर्थिक आदि सभी समस्याए यही सुलझाई जाती थी। भगवान् महावीर के पिता सिद्धार्थ भी उनमे से एक थे, ऐसा कई इतिहासकार मानते हैं । वे सभी सदस्य अपने क्षेत्र के प्रतिनिधि होते थे, जो उन-उन क्षेत्रो के अधिपति घोषित किए जाते थे । उन सभी सदस्यो की एकता और प्रेम अनुकरणीय था । वे परस्पर किसी को हीन या उच्च नही मानते थे। सभी अपने आपको अहम राजा मानते थे । वैशाली मे इनके अलगअलग प्रासाद, आराम आदि थे। इन राजाओ की शासन-सभा सघ-सभा कहलाती थी। इनका गणतत्र वज्जी सघ या लिच्छवी सघ कहलाता था। इस सघ मे ९-९ लिच्छवियो की दो-दो उप-समितिया थी। एक न्याय कार्य सभालती थी और दूसरी परराष्ट्र-कार्य को। इस दूसरी समिति ने मल्लवी, लिच्छवी और काशी-कौशल के गण राजाओ का सगठन बनाया था, जिसके अध्यक्ष ये महाराज चेटक । राज्याध्यक्ष बनाम धर्माध्यक्ष जैन इतिहास में महाराज चेटक को अत्यन्त गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त है । भारतीय जन-मानस मे आज भी उनके प्रति आदर के भाव हैं। वह इसलिए नहीं कि महाराज चेटक तीथंकर महावीर के मामा थे या बहुत वडे शासक थे, अपितु इसलिए कि एक शासक के सम्मानपूर्ण पद पर प्रतिष्ठित होते हुए भी उनका जीवन अध्यात्म से अनुप्राणित था। वे सत्ता के बल पर धम-नीति पर छाए नहीं, अपितु उन्होंने राजनीति को धमनीति के अनुसार सचालित किया। उन्होने अपने गणतत्र को जैन सिद्धातो को प्रयोग-भूमि बनाया। मानवीय एकता, वैचारिक स्वतत्रता, समता, सद्भावना और सहअस्तित्व के सिद्धातो को उन्होने व्यावहारिक रूप प्रदान किया। वे अपने युग के ऐतिहासिक व्यक्ति थे । वे महावीर के परम भक्त और दृढ़धी उपासक थे । उनकी धार्मिकता और महता की छाप पूरे परि
SR No.010225
Book TitleJain Dharm Jivan aur Jagat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakshreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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