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________________ ( १५० ) शून्य अधर्म विवाह है हम से उत्पन्न संतान मोक्ष नहीं जा. मकनी । जबकि श्रीलाल जी कहते हैं-"गांधर्वविवाह भी शास्त्रीय है अतः उससे उत्पन्न संतान क्यों न मोक्ष जाय। जब दो मिलते हैं नव इसी तरह परम्पर विरुद्ध वक्ते हैं। तेरहवाँ प्रश्न ज्या सुधारक और क्या बिगाड़क पाजनक सगी बाल. विवाह को गुहा गुड़ो का खेल कहते रहे है । हमने ऐसे वर वधू को नाटकीय कहा है । ऐसी हालत में उसका वैधव्य भी नाटकीय रहेगा । वास्तव में ता वह कुमारी ही रहेगी। इस. लिये पत्नीत्व का जबतक अनुभव न हा तब तक वह पत्नी या विधवा नहीं कहला सकती। आक्षेपको में इतनी अक्ल कहाँ कि वे पत्नीत्व के अनुभव में और सम्भांग के अनुभव में भेद समझ सके । पहिला भाक्ष पक ( श्रीलाल ) कहना है कि सप्त. पदी हो जाने से ही विवाह हो जाता है। परन्त किमी बालिका से तोते की तरह सप्तपदी रटवा कर कहना देना या उस की तरफ से बोल देना ही तो सप्तपदी नहीं है । सप्तपदी का क्या मतलब है और उससे क्या ज़िम्मेदारी पा रही हे इसका अनु. भव तो होना चाहिये । यही तो पन्नीत्व का अनुभव है। बालविवाह में यह बात ( यही सप्तपदी ) नहीं हो सकती इसलिये उसके हो जाने पर भी न कोई पति पत्नी बनता हे न विधवा विधुर । उपयुक्त पत्नीत्व के अनुभव के बाद और सम्भोग के पहिले वर मर जाय तो वधू विधवा हो जायगी, और उसका विवाह पुनर्विवाह ही कहा जायगा। परन्तु नासमझ अवस्था में जो विवाह नाटक होता है उससे कोई पत्नी नही बनती । प्राक्षेप (क)--विवाह को स्थापना निक्षेपका विषय कहना सचमुच विद्वत्ता का नका नाच है । तब तो व्यभिचार भी विवाह कहलायगा । ( विद्यानन्द )
SR No.010223
Book TitleJain Dharm aur Vidhva Vivaha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSavyasachi
PublisherJain Bal Vidhva Sahayak Sabha Delhi
Publication Year
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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