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________________ ही । साधारण पाप की तो बात ही क्या है परन्तु अणुवन नक पाप कहा जासकता है (अणुवन अर्थात् थोड़ा व्रत अर्थात् बाकी पाप) जब अणुव्रत की यह बात हे नबोरों की तो बात ही क्या है ? प्राणदण्ड सगेखा कार्य भी जैनसम्राटी ने अधिक अनर्थों को रोकने के लिये किया है । निर्विकल्प अवस्था के पहिले जितने कार्य है वे सब बहु अनयों को रोकने वाले थोड़े अनर्थ ही हैं। प्रकृत बात यह है कि विधवाविवाह से व्यभिः चार श्रादि अनर्थों का निगंध होता है इसलिये वह ग्राह्य है। आक्षेप (ङ)-जो पुराय हैं वह मदा पुरा प है । जो पाप है वह मदा पाप है। मपाधान-नब तो पुनर्विवाह, विधुगे के लिये अगर पुण्य है तो विधवाओं के लिये भो पुराय कहलाया। आक्षेप ( च )-म्वस्त्रीसंबन पाप नहीं, पुराय है । इसी. लिये यह म्वदारसंतोष अणुव्रत कहलाता है । ममाधान-म्वदारसंवन और स्वदारसंतोष में बड़ा अन्तर है । म्वदारसंबन में अम्बदारनिवृत्ति का भाव है। संवन में सिर्फ प्रवृत्ति है । स्वदारसंतोष, अणुव्रती को ही होगा। म्वदारसेवन ना अविरत और मिथ्यात्वी भी कर सकता है। आक्षेप (छ)-अपेक्षाभेद लगाकर तो आप सिद्धा की अपेक्षा म्नातकों ( अहनों) को भी पापी कहेंगे । समाधान-अकुल श्रादि को अपेक्षा पुलाक श्रादि पापी कहं जासकते हैं क्योंकि पुलाक आदि में कषाये हैं। कोई जीव तभी पापी कहला सकता है जब कि उसके कपाय हो । कषायरहित जीव पापी नहीं कहलाना । अहन कषायानीत है। माक्षेप ( ज )-यदि धर्मविरुद्ध कार्य भी ग्राह्य स्वीकार किये जाँय तब त्याज्य कोन से होंगे? समाधान-धर्मविरुद्ध कार्य, जिस अपेक्षा से धर्मानु
SR No.010223
Book TitleJain Dharm aur Vidhva Vivaha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSavyasachi
PublisherJain Bal Vidhva Sahayak Sabha Delhi
Publication Year
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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