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________________ ( १३४ ) होता है कि व्यभिचार मार्ग बहुत कुछ रुक जाता है । ठीक यही बान विधवाओं के लिये है। दसवाँ प्रश्न 'क्या विधवा हो जाने से ही प्राजन्म ब्रह्मचर्य पालन की शक्ति पाजाती है ?' इसके उत्तर में हमने कहा था कि 'नहीं' । दूसरे प्रक्षेपक (विद्यानन्द ) ने भी हमारी यह बात म्वीकार करली है परन्तु पहिले प्राक्ष पक कहते है कि यह धृष्टता है। इसका मतलब यह निकला कि संमार में जितनी विधवा हुई है व सब व्यभिचारिणी है। आक्ष पक की इस मूर्खता के लिये क्या कहा जाय ? प्रत्येक विधवा ब्रह्मचर्य नहीं पाल सकती है-इमका तो यही अर्थ है कि कोई काई पाल सकती हैं, जिनके परिणाम विरक्तिरूप हो। इसलिये हमने लिखा था कि यह बात परिणामों के ऊपर निर्भर है । परन्तु श्रीलाल, न तो परिणामों की बात समझा, न उस वाक्य का मतलब । श्रीलाल यह भी कहता है-'मगगता से मुनि में भटता नहीं पाती, न पर पुरुष से रमणरूप भाव से विधवा भ्रष्ट होती है। हम अपने शब्दो में इसका उत्तर न देकर आक्ष पक के परम सहयोगी पं० मक्खनलाल के वाक्यों में लिखते हैं : "सगगता से विधवाएँ शीलभ्रट जरूर कहलायेंगी। मुनि भी सगगता से भ्रष्ट माना जाता है।" अब ये दोनों दोम्त आपस में निबट ले।। दोनों ही प्रापकों ने एक ही बान पर विशेष जोर दिया है । “विधवाविवाह अधर्म है; उसको कोई तीसरा मार्ग नहीं है: विधवा का विवाह नहीं हो सकता, उसे विवाह नहीं, कराव या धरेजा कहते हैं। आप के पास क्या यक्ति प्रमाण है ? आप अपनी इच्छा से ही विधवाविवाह का उपदेश क्यों
SR No.010223
Book TitleJain Dharm aur Vidhva Vivaha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSavyasachi
PublisherJain Bal Vidhva Sahayak Sabha Delhi
Publication Year
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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