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________________ 92 / जैन धर्म और दर्शन रूप तथा वायु में एकमात्र स्पर्श गुण मानते हैं। इन चारों में पृथक्-पृथक् जाति के गुण होने से चार प्रकार के पृथक्-पृथक् द्रव्य भी मानते हैं। किंतु जैन दर्शन के अनुसार ये चारों पृथक-पृथक जाति के द्रव्य नहीं हैं। प्रत्येक परमाणु में चारों प्रकार के गुण अनि रूप से हैं। यह तो संभव है कि किसी में कोई गुण पूर्णतः अभिव्यक्त हो तथा किसी में कोई गुण पूर्ण रूप से प्रकट न हो, किंतु इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि उनमें वे गुण पाए ही नहीं जाते अन्यथा सीप के पेट में पड़ने वाला जल, पार्थिव मोती न बन पाता। हाइड्रोजन और ऑक्सीजन रूप वायु के मिलने से जल की उत्पत्ति न हो पाती तथा पार्थिव ईंधन से अग्नि की उत्पत्ति भी असंभव थी क्योंकि प्रत्येक परमाणु भिन्न जाति वाले हैं। वे परस्पर विरोधी कार्य नहीं कर सकते। आधुनिक विज्ञान की इस मान्यता ने जैन दर्शन मान्य परमाणु की जातीय विषयक धारणा की और पुष्टि कर दी है। पूर्व में विज्ञान ने 92 मूल तत्त्व माने थे। (मूल तत्त्व का लक्षण करते हुए बताया गया है कि एक तत्त्व दूसरे तत्त्व रूप परिणत नहीं होते) किंतु धीरे-धीरे विज्ञान की यह मान्यता बदल गयी और वह 92 से घटकर एक मात्र एक तत्त्व तक पहुंच गया है। आज ऐसे अनेकों प्रयोग हो चुके हैं जिससे पारा के परमाणुओं को प्रयोग द्वारा विखंडित कर सोना बनाया गया पुद्गल के उस मूल-गुण (Fundaniental Property) से है, जिसका प्रभाव हमारी आख की पुतली पर लक्षित होता है और हमारे मस्तिष्क में रक्त, पीत, कृष्ण आदि आभास कराता है । आप्टिकल सोसायटी ऑफ अमेरिका (Optical Society of America) ने वर्ण की निम्नलिखित परिभाषा दी है, “वर्ण एक व्यापक शब्द है, जो आख के कृष्ण पटल (Retuna) और उससे सबद्ध शिराओं की क्रिया से उद्भूत आभास को सूचित करता है । रक्त, पीत, नील, श्वेत, कृष्ण इसके उदाहरण स्वरूप प्रस्तुत किये जा सकते हैं।" पंचवर्णों का सिद्धांत-पचवों का सिद्धात इस प्रकार समझाया जा सकता है-यदी किसी वस्तु का ताप बढ़ाया जाए तो सर्वप्रथम उसमें से अद्दश्य (Dark) ताप किरणें (Heat Rays) निस्सरित (Emitted) होती है। उसके अनतर वह रक्त वर्ण किरणे छोड़ती है और अधिक ताप बढ़ाने से वह पीत वर्ण किरणें छोड़ती हैं और फिर उसमें से श्वेत-वर्ण किरणें निस्सरित होती है। यदि उसका ताप और अधिक बढ़ाया जाये तो नील वर्ण किरणें भी उद्भूत हो सकती है। श्री मेघनाद शाह और बी. एल. श्रीवास्तव ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि कुछ तारे नील-श्वेत रश्मियां छोड़ते हैं। इससे स्पष्ट है कि उसका तापमान बहुत अधिक है। तात्पर्य यह है कि ये पाच वर्ण ऐसे प्राकृतिक वर्ण है जो किसी भी पुद्गल से विभिन्न ताप मानों (Temperature) पर उद्भूत हो सकते है और इसलिए पुद्गल के मूलगुण (Fundamental Properties) है । वैसे जैन विचारकों ने वर्ण के अनत भेद माने हैं। हम सौर वर्ण पट के वर्षों में (Spectrum Colours) देखते है कि यदि रक्त से लेकर कासनी (Violet) तक तरंग-प्रमाणों (Wavelengths) की विभिन्न अवस्थितियों (Stages) की दृष्टि से विचार किया जाए तो इनके अनत होने के कारण वर्ण भी अनत प्रकार के सिद्ध होंगे, क्योंकि यदि एक प्रकाश तरंग (Light-wave) प्रमाण (Length) में दूसरी प्रकार तरग से अनतवें भाग (Infinitesimal Amount) भी न्यूनाधिक होती है तो वे तरंगें दो विसदृश वर्णों को सूचित करती है। इस प्रकार जैन-दार्शनिकों की पुद्गल की परिभाषा तर्क व विज्ञान सम्मत सिद्ध होती है।। -पं. चंदाबाई अभिनंदन ग्रंथ, प. 266-267 (a) "Colour is the general term for all Sensations. arising from the activity of retina and its attached Nervous Mechanism. It may be examplified by the errumeration of characteristic ins-tances, such as red, yellow, blue, black and white...." (b) Some of the Stars shine with a bluish-white light which indicates that their temeratures must be very high. -M.N. Saha& B.N. Shrivastava
SR No.010222
Book TitleJain Dharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramansagar
PublisherShiksha Bharti
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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