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________________ अजीव तत्व-पुदगल द्रव्य/91 वाले परमाणु के साथ तो बंध संभव है कितु तीन या पांच शक्त्यंशों वाले परमाणु बंध को प्राप्त नहीं हो सकते । दो की अधिकता होना अनिवार्य है। बंधकाल में अधिक गुण वाले परमाणु, अल्प गुण वाले परमाणुओं को अपने रस, रंग, गंध और स्पर्श रूप परिणमा लेते हैं।' इसी रासायनिक प्रक्रिया के द्वारा दो को आदि लेकर संख्यात असंख्यात और अनंत अणु वाले स्कंध बनते हैं। प्रत्येक पुद्गल में स्पर्श, रस, गंध और वर्ण ये चार गुण पाये जाते हैं । ठंडा, गर्म, हल्का, भारी, रूखा, चिकना, कठोर, मृदु आठ प्रकार के स्पर्श; खट्टा, मीठा, कड़वा, कसैला और तिक्त पाँच प्रकार के रस, काला, पीला, नीला, लाल और सफेद पाँच प्रकार के वर्ण तथा सुगंध और दुर्गंध रूप दो गंध, इस प्रकार कुल 20 पर्यायें हैं। इनमें से स्कंधों में ठण्डा, गर्म आदि आठ र्क्सशों में से अविरुद्ध कोई चार स्पर्श, पाँच वर्ण में से कोई एक वर्ण पाँच रस में से कोई एक रस तथा दो गंध में से कोई एक गंध अनिवार्य रूप से पाये जाते हैं। परमाणु में कठोर, मृदुपन तथा हल्का, भारीपन नहीं पाये जाने से एक काल में कोई दो ही स्पर्श पाये जाते हैं। तत्त्व मूलतः एक ही है कुछ दार्शनिक पृथ्वी में स्पर्शादि चारों, जल में गंध रहित तीन, अग्नि में मात्र स्पर्श और 1 त सू 5/37 विशेष-जैन दर्शनकारो ने जैसे स्निग्धत्व और रूक्षत्व को बधन का कारण माना है, वैज्ञानिकों ने पदार्थ के धन-विद्युत एव ऋण-विद्युत् अर्थात् पॉजेटिव और निगेटिव इन दो स्वभावों को बधन का कारण माना है । जैन दर्शन के अनुसार जहा स्निग्ध और रूक्षत्व पदार्थ मात्र में मिलता है वही आधुनिक विज्ञान के अनुसार धन-विद्युत् और ऋण-विद्युत् पदार्थ मात्र में मिलती है । वस्तुत जैन दर्शनकारो एव आधुनिक वैज्ञानिकों की बात में कोई फर्क नही है मात्र शब्द भेद ही है । जैन दर्शन में स्निग्ध और रूक्षत्व के नाम से तथा वैज्ञानिक उसे धन-विद्युत् और ऋण विद्युत् के नाम कहते हैं। प्रोफेसर जी आर जैन के अनुसार भी स्निग्ध और रूक्षत्व वैज्ञानिक परिभाषा मे निगेटिव और पॉजेटिव है वे लिखते हैसर्वार्थ-सिद्धि मे पूज्यपाद स्वामी ने लिखा है 'स्निग्धरूक्षगुणनिमित्तोविद्युत' अर्थात् बादलों में स्निग्ध और रूक्ष गुणो के कारण विद्युत् की उत्पत्ति होती है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि स्निग्ध और रूक्ष का अर्थ चिकना और खुरदरा नही है। ये दोनों वास्तव में बहुत टेक्निकल अर्थ में प्रयुक्त है। जिस तरह एक अनपढ़ ड्राइवर बैटरी के एक तार को ठडा तथा दूसरे को गर्म कहता है (यद्यपि उनमें न कोई तार ठडा होता है न कोई गरम) और विज्ञान की भाषा में जिन्हे पॉजेटिव और निगेटिव कहा जाता है, ठीक उसी तरह जैन धर्म में स्निग्ध और रुक्ष शब्दों का प्रयोग किया जाता है। डॉ वी एन शील ने अपनी केबिज से प्रकाशित पुस्तक 'Postive Sciences of ancient Hindu' में स्पष्ट लिखा है “जैनाचार्यों को यह बात मालूम थी कि भिन्न-भिन्न वस्तुओं को आपस में रगड़ने से पॉजेटिव और निगेटिव विद्युत उत्पन्न की जा सकती है।" इन बातों के समक्ष इसमें कोई सदेह नही रह जाता कि स्निग्ध का अर्थ पॉजेटिव और रूक्ष का अर्थ निगेटिव विद्युत् है । देखे-तीर्थंकर महावीर स्मृति प्रथ, ग्वालियर, पृ 275-76 2 स्पर्श रस गध वर्ण वतः पुद्गलाः, त सू. 5/23 3 पुद्गल की उपर्युक्त परिभाषा के विषय में एक प्रश्न और भी उपस्थित हो सकता है, वह यह कि जैन सिद्धातकारों ने वर्ण को पाच ही प्रकार का क्यों माना, जबकि सौर वर्ण पट (Solar Spectrum) में सात वर्ण होते है और प्राकृतिक-अप्राकृतिक वर्ण (Natural & Pigmentory Colours) बहुत से होते हैं। इसका उत्तर यह है कि वर्ण से उनका तात्पर्य सौर वर्ण पट के वर्णों अथवा अन्य वर्गों से नही है, प्रत्युत् *
SR No.010222
Book TitleJain Dharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramansagar
PublisherShiksha Bharti
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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