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________________ 84 / जैन धर्म और दर्शन इन तीनों प्रकार के जन्म में रज और वीर्य के संयोग की अनिवार्यता है। उसके बिना इनकी उत्पत्ति नहीं होती। आज जो टेस्ट ट्यूब बेबी कहलाती है वह भी इसी जन्म के अतर्गत ही आती है। अंतर मात्र इतना है कि उसमें कृत्रिम तरीके से पोषण किया जाता है। सम्मऊन (SPOHTANEOUS GENERATION)-ऊपर-नीचे. आगे-पीछे सब ओर से पुद्गल परमाणुओं को ग्रहण कर अपने शरीर का निर्माण करने वाले जीव सम्मूर्छन कहलाते हैं। इसमें माता-पिता के रज वीर्य के संयोग की अपेक्षा नहीं होती। शरीर विकास की सारी सामग्री वातावरण से ग्रहण करते हैं। सभी प्रकार के पेड़-पौधे, शेष एकेंद्रिय तथा द्विइंद्रियादि कीड़े-मकोड़े इसी जन्म वाले होते हैं। चींटियों के जो अंडे देखे जाते हैं वह भी सम्मूर्छन ही हैं क्योंकि वे रज वीर्य के संयोग से उत्पन्न नहीं होते। इस प्रकार इस अध्याय में हमने जाना कि जीव उपयोगवान अमूर्त है, अपने परिणामों का कर्ता और भोक्ता है। शरीर प्रमाण आकार वाला है। संसारी और सिद्ध है साथ ही ऊर्ध्वगति स्वभाव वाला है। एक जीव दूसरी गति में कैसे जाता है। मृत्यु के बाद जीव के स्थूल एवं सूक्ष्म शरीरों के रूप को तथा जीव के देहांतर गमन की प्रक्रिया और उसके जन्म को समझा । अब अगले अध्याय में पुद्गलादि अजीव द्रव्यों का कथन करेंगे। 'समझदारों का पागलपन' यह सत्य है कि विज्ञान ने दिक् और काल पर विजय प्राप्त कर ली है। वैज्ञानिक तकनीक ने मनुष्य को चंद्रमा पर पहुंचा दिया है। विज्ञान ने मनुष्य के हाथ में परमाणु की असीम शक्ति दी है। जिससे भौतिकता के मामले में मनुष्य अत्यंत समृद्ध हो गया है। परंतु आत्मिकता और आत्मीयता के क्षेत्र में वह अत्यंत विपन्न हो गया है। उसकी महात्वाकांक्षा ने उसे भीतर से तोड़ कर रख दिया है। किसी विचारक ने ठीक ही लिखा है, मनुष्य जो बनना चाहता है और जो है उसके बीच विनाशकारी असंतुलन है।" यह विरोध हमारी अशंति का कारण है। हम बात समझदार व्यक्तियों की तरह करते हैं और व्यवहार पागलों की तरह से । मनुष्य ने बाह्य पदार्थ तो अंत तक जान लिया है परंतु उसे अपने अंतर का अपने आपका कोई ज्ञान नहीं है । वह अपने सामने ही दीन-हीन हो गया है, वह अपने आपसे टूट गया है। आत्म अज्ञान के कारण कहीं शरण नहीं मिल सकती है। भगवान महावीर के अनुसार बाहर की कोई भी वस्तु धरा-धाम, धन-संपत्ति, स्त्री, पुत्र, कोई हमारे शरण नहीं हो सकते । मनुष्य मात्र आत्मा में.धर्म में शरण पा सकता है।
SR No.010222
Book TitleJain Dharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramansagar
PublisherShiksha Bharti
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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