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________________ जीव और उसकी विविध अवस्थाएं / 77 रहता है। जैन दर्शन में जीव को ऊर्ध्वगति स्वभावी कहा गया है। जैसे दीपक को निर्वात शिखा स्वभाव से ही ऊपर की ओर जाती है वैसे ही शद्ध दशा में जीव भी ऊर्ध्वगमन स्वभाव वाले होते हैं। वायु से प्रकंपित दीपक की लौ की तरह अशुद्ध दशा में जीव कर्मों से प्रेरित होकर चार गतियों में इधर-उधर भ्रमण करते हैं, किंतु शुद्ध दशा में अपने ऊर्ध्वगमन के स्वभाव के द्वारा लोक के अग्र भाग में स्थिर हो जाते हैं। उसके आगे नहीं जाते क्योंकि उसके आगे गति में निमित्त धर्म द्रव्य का अभाव है।' इस प्रकार जैन दर्शन में जीव को ऊर्ध्वगमन स्वभावी मानते हए भी उसे निरंतर गतिशील नहीं माना गया है। इसी प्रकार अपने शुभाशुभ भावों के आधार पर स्वयं अपना उत्थान और पतन करने वाला होने से जीव को प्रभु (स्वयंभू) भी कहा गया है, क्योंकि जीव अपना विनाश और विकास करने में स्वतंत्र है। वह किसी अन्य शक्ति के आधीन नहीं है। जीव अपनी सदप्रवृत्ति से अपनी आत्मा का परम विकास कर सकता है तो अपनी असद् प्रवृत्ति के कारण उसकी आत्मा का पतन भी संभव है। वह अपना मालिक स्वयं है। दूसरे शब्दों में कहें कि वह स्वयं अपने विकास और विनाश का उत्तरदायी है। अत: जीव को प्रभु कहना सार्थक इसी प्रकार जीवन के किसी आदि बिंदु के न होने से जीव को अनादि तथा बार-बार जन्म-मरण होते रहने के बाद भी आत्मा का समूलोच्छेद नहीं होने से उसे अनिधन कहा गया है। जीव को अनिधन कहने का आशय यह है कि वह कभी मरता नहीं है, अर्थात् अमर है। "अमुक जीव मर गया” ऐसा जो कहा जाता है वह औपचारिक है। यहां मर जाने का अर्थ इतना ही है कि उसने जिस देह को धारण किया था, उसका वियोग हो गया। जैसे एक व्यक्ति पुराने वस्त्र उतारकर नये वस्त्र धारण करता है उसी तरह जीव भी उपार्जित आयु के पूर्ण होने पर वर्तमान देह को छोड़कर नवीन देह धारण करता है। तात्पर्य यह है कि हम जिसे मरण कहते हैं वह जीव के लिए देह परिवर्तन की क्रिया है, स्व-विनाश की क्रिया नहीं। जीव की विविध अवस्थाएं जीव तत्व के दार्शनिक स्वरूप को हमने समझा। अब हम उसकी विविध अवस्थाओं के संबंध में विचार करेंगे । जीवों के भेद कितने हैं ? इंद्रियां कितनी हैं ? उनका कार्य क्या है ? मन क्या है? गतियां कितनी हैं? शरीर से जीव का संबंध कैसा है? मत्य के उपरांत इस शरीर का क्या होता है ? जीव एक गति से दूसरी गति में कैसे जाता है ? जीव की जन्म लेने की प्रक्रिया क्या है तथा वह नवीन शरीर का निर्माण कैसे करता है? आदि अनेक जिज्ञासाएं प्रायः लोगों के मन में उठा करती हैं। जैन दर्शन में इनका विस्तृत वर्णन है। संक्षेप में हम 1. धर्मास्तिकायापावात् त. सू. 10/8
SR No.010222
Book TitleJain Dharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramansagar
PublisherShiksha Bharti
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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