SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 81
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जीव और उसकी विविध अवस्थाएं / 75 अतः जीव को अपने शरीर प्रमाण ही मानना चाहिए। आत्मा को अणु प्रमाण या अंगुष्ठ मात्र मानने पर भी जितने प्रदेशों में आत्मा रहता है, उससे बाहर के प्रदेशों का अनुभव भिन्न जीवों की तरह नहीं हो सकने का प्रसंग प्राप्त होता है। जबकि देखा जाता है कि जीव अपने शरीर के प्रत्येक प्रदेश में होने वाले सुख-दुःख का अनुभव करता है। अतः आत्मा को शरीर प्रमाण स्वीकार करना ही युक्ति युक्त है। उपनिषदों में भी आत्मा के देह प्रमाण होने का उल्लेख मिलता है।' कौषीतको उपनिषद् में कहा गया है कि “जैसे छुरा अपने म्यान में और अग्नि अपने कुंड में व्याप्त है वैसे ही आत्मा शरीर में नख से लगाकर शिखा तक व्याप्त है।" तैत्तरीय उपनिषद् में आत्मा को अन्नमय, प्राणमय, मनोमय और विज्ञानमय बताया गया है, जोकि जीव को देह परिमाण मानने पर ही संभव है। आत्मा अनेक हैं वह ब्रह्म का अंश नही-अद्वैत वेदांति आत्मा को एक ही आध्यात्मिक तत्व (ब्रह्म) मानते हैं। उनकी मान्यता के अनुसार प्रत्येक आत्मा की स्वतंत्र सत्ता नहीं है। वे ब्रह्म को 'एकमेवाद्वितीयम' बताते हुए जगत् के सर्वजीवों को उसका ही अंश मानते हैं। जैन दार्शनिक. वेदांतियों के उक्त मत से सहमत नहीं हैं। जैन दर्शन के अनुसार एकात्मवाद की कल्पना युक्तिरहित है। यदि संपूर्ण लोक में एक ही आत्मा है तो सभी जीवों का स्वभाव समान रहना चाहिए। सभी जीवों की प्रवृत्ति समान होनी चाहिए तथा सभी जीवों के सुख-दुःख के अनुभव की मात्रा भी समान ही होनी चाहिए। जबकि ऐसा देखा/पाया नहीं जाता। सभी जीवों का स्वभाव और प्रवृत्तियां समान नहीं हैं तथा सब जीवों के सुख-दुःख का अनुभव भी समान नहीं होता। अतः आत्मा एक नहीं बल्कि अनेक हैं। 'विश्व तत्व प्रकाश' में कहा गया है कि यदि आत्मा एक होती तो एक ही समय में यह तत्वज्ञ है तथा मिथ्याज्ञानी है, यह आसक्त है, यह विरक्त है। इस प्रकार के विरुद्ध व्यवहार नहीं पाए जाते । अतः आत्मा एक नहीं है। यदि एक ही आत्मा मानी जाए तो एक व्यक्ति के द्वारा देखे गए तथा अनुभूत किए पदार्थों का स्मरण दूसरे व्यक्ति को भी होना चाहिए क्योंकि दोनों की आत्मा एक है किंतु ऐसा नहीं होता। अतः सिद्ध है कि आत्मा अनेक हैं । एक आत्मा मानने से एक के जन्म से सबका जन्म तथा एक के मरण से सबका मरण मानना पड़ेगा। इसी तरह एक के दुःखी होने से सबको दुःखी तथा एक के सुखी होने से सबके सुखी होने का प्रसंग प्राप्त होता है लेकिन इस प्रकार की अवस्था देखने में नहीं आती अर्थात् सभी के सुख-दुःख, जीवन-मरण अलग-अलग दृष्टिगोचर होते हैं। अतः सिद्ध है कि आत्मा अनेक हैं एक नहीं। सांख्य दर्शन में भी आत्मा के अनेकत्व को स्वीकारते हए एकात्मवाद का खंडन 1. अ मुण्डक उपनिषद् 1/1/6 ब. छान्दोग्य उपनिषद् 3/14/3 2. तर्क भाषा पृ.153 3. विश्व तत्व प्रकाश (भावसेन) पृ. 174 4. विश्व तत्व प्रकाश (भावसेन) पृ. 124 5. सर्वेषामेकमेवात्मा युज्यते नेतिजल्पितम्। जन्म मृत्यु सुखादीन मित्रानामुपलब्धित: -विश्व तत्व प्रकाश
SR No.010222
Book TitleJain Dharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramansagar
PublisherShiksha Bharti
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy