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________________ 74/ जैन धर्म और दर्शन अनुरूप जैन दर्शन में व्यवहार से जीव को अपने सुख-दुःखों का भोक्ता कहा गया है, तथा निश्चय से अपने चैतन्यात्मक आनंद स्वरूप का भोक्ता कहा गया है। यदि आत्मा मुख-दुःख का भोक्ता न हो तो सुख-दुःख की अनुभूति ही नहीं हो सकती। बौद्ध दर्शन क्षणिकवादी है। अतः वह आत्मा के कत्तृत्व और भोक्तृत्व के ऐक्य को स्वीकार नहीं करता है। यदि जीव को अपने कर्मों का भोक्ता न माना जाए तथा कर्म करने वाले को उसका फल न मिलकर किसी अन्य को मिलने लगे तो फिर इससे पाप-पुण्य की कोई व्यवस्था ही नहीं रहेगी। शरीर परिमाणित्व-आत्मा के आकार के संबंध में भी विभिन्न दर्शनकारों के भिन्न-भिन्न मत हैं । कुछ दार्शनिक आत्मा को सर्वव्यापक मानते हैं तथा कुछ दर्शन ऐसे भी हैं जो आत्मा को अंगुष्ठ मात्र अथवा अणु प्रमाण मात्र मानते हैं। जैन दर्शन के अनुसार जीव कर्मों के निमित्त से छोटा-बड़ा जैसा भी शरीर मिलता है उस शरीर के आकार वाला होता है। इसीलिए जैन दर्शन में जीव को 'अणु गुरु देहपमाणों' कहा गया है। जीव छोटे-बड़े आकार वाला कैसे हो जाता है ? इस बात का समाधान जैन दर्शन में उसके संकोच विस्तार रूप शक्ति को स्वीकार कर दिया गया है। जिस प्रकार दीपक का प्रकाश छोटे स्थान पर संकुचित हो जाता है तथा विस्तृत स्थान मिलने पर फैल जाता है, उसी प्रकार जीव भी चींटी जैसा सूक्ष्म शरीर मिलने पर सकुचित हो जाता है तथा हाथी जैसा विशाल शरीर मिलने पर विस्तृत हो जाता है। इस प्रकार प्रदेशों में संकोच-विस्तार होते रहने पर भी उसके लोक-प्रमाण आत्म प्रदेशों की संख्या में कोई हानि/वृद्धि नहीं होती। आत्मा सर्वव्यापक नही-न्याय वैशेषिक मीमासक आदि दार्शनिक आत्मा का अनेकत्व स्वीकारते हए भी उसे आकाश की तरह सर्वव्यापक मानते हैं। गीता में भी आत्मा को व्यापक प्रतिपादित किया गया है। कितु आत्मा को सर्वव्यापक मानना ठीक नहीं है क्योकि वह हमारे अनुभव और प्रतीति के विपरीत है। हमारी प्रतीति हमें यह बताती है कि जितने परिमाण में हमारा शरीर है इतने ही परिमाण में हमारी आत्मा है। शरीर के बाहर आत्मा का अस्तित्व रह कैसे सकता है ? जहां पर जिस वस्तु के गुण उपलब्ध होंगे वह वस्तु वहीं पर रहेगी। कुंभ वही रहता है जहां उसके रूपादि गुण उपलब्ध होते हैं। उसी प्रकार आत्मा का अस्तित्व भी वही मानना चाहिए जहां उसके ज्ञान,स्मृति आदि गुण उपलब्ध हों। अतः आत्मा को सर्वव्यापक नहीं माना जा सकता क्योंकि शरीर के बाहर वैसा कोई लक्षण दिखाई नहीं पड़ता। ___ यदि जीव व्यापक है तो जैसे जीव को अपने शरीर में होने वाले सुख-दुःख का अनुभव होता है वैसे ही पराए शरीर में होने वाले सुख दुःख का अनुभव होना चाहिए। किंतु यह बात सुस्पष्ट है कि पराए शरीर में होनेवाले सुख-दुःख का अनुभव जीव को नहीं होता। 1द्र स गा9 2. (अ) भारतीय दर्शन डा राधा कृष्णन भाग-2 पृ 692 (ब) कठोपनिषद् 4/13 3 द्र सा गा 10 4 प्रदेश सहार विसाच्या प्रदीपवत त सू 5/16 5 गीता 2/20 6 का. अनु गा 177
SR No.010222
Book TitleJain Dharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramansagar
PublisherShiksha Bharti
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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