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________________ 44 / जैन धर्म और दर्शन पर भी दिगंबरों की प्राचीनता सिद्ध होती है। जितनी भी प्राचीन प्रतिमाएं मिली हैं वह सब दिगंबर रूप में ही हैं। स्वयं श्वेतांबर ग्रंथों में यह उल्लेख मिलता है कि तीर्थंकर ऋषभदेव और महावीर ने दिगंबर धर्म का उपदेश दिया था। उन ग्रंथों में दिगंबर वेश को अन्य वेशों से श्रेष्ठ बताते हुए यह भी कहा है कि भगवान महावीर ने निग्रंथ श्रमण और दिगंबरत्व का प्रतिपादन किया था और आगामी तीर्थकर भी उसका ही प्रतिपादन करेंगे।' वैदिक साहित्य और बौद्ध ग्रंथों में दिगंबर मुनियों के रूप में ही जैन धर्म का उल्लेख हुआ है। वेदों में वातरसना मुनियों के रूप में तो दिगंबर मुनियों का उल्लेख मिलता ही है। उपनिषदों में दिगंबरों को 'यथाजात रूपधरो निग्रंथों निष्परिग्रहः शुक्ल ध्यान परायणः' लिखा है। हिंदू पद्मपुराण में निर्मथ साधुओं को नग्न कहा है। वहां जैन धर्म की उत्पत्ति की कथा बताते हुए कहा है कि दिगंबर मुनि द्वारा जैन धर्म की उत्पत्ति हुई। वायु पुराण में जैन मुनियों को नग्नता के कारण श्राद्धकर्म में आदर्शनीय कहा है। टीकाकार उत्पल और सायण ने भी निग्रंथों को नग्न क्षपणक माना है।' बौद्ध ग्रंथों में भी निर्ग्रथो को अचेलक बताया है। विशाखवत्थु धम्मपदट्ठ कथा में निर्यथ साधु का वर्णन नग्न रूप में मिलता है। दाढ़ा वंशों में निम्रथों को नग्नता के कारण अहिरिका (अदर्शनीय) कहा है। इसी प्रकार दीर्घनिकाय मज्झिम निकाय महावग्ग आदि बौद्ध ग्रंथों में भी निर्ग्रथों के रूप में दिगंबर साधुओं का उल्लेख मिलता है। इन उल्लेखों से स्पष्ट है कि प्राचीन काल में जैन साधु निर्मथ कहलाते थे। और वे नग्न रहते थे। शिलालेखीय साक्ष्यों से भी इस बात की पुष्टि होती है। सम्राट अशोक के धर्म लेखों में निग्गंथ (निर्मथ) साधुओं का उल्लेख है। जिनका अर्थ प्रो. जनार्दन भट्ट नग्नजैन साधु करते हैं। पांचवी शताब्दी में कदंब वंशी नरेश मृगेश वर्मा ने उपने एक ताम्रपत्र में अर्हत भगवान और श्वेतांबर महाश्रमण संघ तथा निर्गथ अर्थात दिगबर महाश्रमण संघ के उपभोग 1 "सजहानामए अज्जोमए समणाण निग्गथाण नग्गभावे मुड भावे अण्हाणए अदतवणे अच्छत्तए अणुवाहणए भूमिसेज्जा फलग सेज्जा कट्ठसेज्जा केसलोए बभचेरबासे लद्धाबलद्ध वित्ताओ जाव पण्णताओ एवामेव महा पउमेवि अरहा समणाण णिग्गथाण नग्गभावे जाव लद्धाबलद्ध वित्ताओ जाव पन्नवेहित्ति । अर्थात् भगवान महावीर कहते है कि श्रमण निग्रंथ को नग्नभाव, मुडभाव, अस्नान, छत्र नही करना, पगरखी नही पहनना, भूमि शैया, केशलोच, ब्रह्मचर्य पालन, अन्य के गृह मे भिक्षार्थ जाना आहार की वृत्ति जैसे मैंने कही वैसे महापद्य अरहत भी कहेगे। -ठाणा, पृ. 813/देखें दि. दि. मुनि, पृ. 48-49 2 यथाजात रूप धरो निर्यथो निष्परिग्रह शुक्लध्यान परायण । -सूत्र 6, जावालोपनिषद 3 "अर्हतो देवता यत्र निर्ग्रथो गुरुरुच्यते" -हिंद पा पुराण 4 वृहस्पति साहाय्यार्थ विष्णुना मायामोह समुप्पाद वम. दिगबरेण मायामोहने दैत्यान प्रति जैन धर्मोपदेश दानवाना माया मोह मोहिताना गुरुणा धर्म दीक्षा दानम । 5. दि दि मुनि, 59 6 (क) निर्ग्रथो नग्न. क्षपणकः ___ (ख) कथा कोपीनोत्तरा सगादिनाम त्यागिना, यथाजात रूपधरा निर्यथा निष्परिग्रहा इति सवर्त श्रुतिः । 7. दिदि मुनि, पृ 50 8. दिदि मुनि, पृ 46 से 59 9. अशोक के धर्म लेख, पृ 327
SR No.010222
Book TitleJain Dharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramansagar
PublisherShiksha Bharti
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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