SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 49
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन इतिहास-एक झलक/43 सटीक मालूम पड़ता है कि “किसी वैद्य ने संग्रहणी के रोगी को दवा के रूप में अफीम सेवन की सलाह दी थी किंतु रोग दूर होने पर भी जैसे उसे अफीम की लत पड़ जाती है और वह उसे नहीं छोड़ना चाहता, वैसी ही दशा इस अपवादिक वस्त्र की हुई। दिगंबरत्व की प्राचीनता भगवान महावीर से आचार्य भद्रबाहु के काल तक संपूर्ण जैन संघ निर्मथ संग कहलाता था तथा उस समय सभी साधु दिगंबर ही रहते थे। पंडित कैलाशचंदजी सिद्धांत शास्त्री ने 'जैन साहित्य का इतिहास' नामक ग्रंथ में इस विषय पर पर्याप्त प्रकाश डाला है। अनेक इतिहासज्ञ, विद्वानों ने भी इसे स्वीकार करते हुए यह मत व्यक्त किया है कि आचार्य भद्रबाहु के समय पड़ने वाले महादुर्भिक्ष के कारण ही निर्मथ संघ दिगंबर और श्वेतांबर दो संप्रदायों में विभक्त हुआ। प्राचीन साहित्य के अन्वेषण शिलालेखीय साक्ष्यों एवं पुरातात्विक सामग्री के आधार 1 जैन साहित्य मे विकार पृ40 2 (क) दिगबर सप्रदाय के विषय मे अग्रेजी विश्वकोषकार निम्न कथन विशेष बोधप्रद है"The Jains are divided into two great parties Digmbers or sky clad ones and the Swetambers or the white robed ones The latter have only as yet been traced and that doubtfully as far back as the 5th century after chirst the former are almost certaintly The same as the Nirganthas who are reffered to in numerous passage of Buddheit Pali Pitarkas and must therefore he at least as old as 6th century BC The Nirganthas are reffered to in one of Ashoka's edicts" -Vide Ency. Brit. Eleventh, Vol. 15, Page 127 (ख) आर सी मजुमदार ने लिखा है “जब भद्रबाहु के अनुयायी मगध मे लौटे तो एक बड़ा विवाद उठ खड़ा हुआ। नियमानुसार जैन माधु नग्न रहते थे कितु मगध के जैन साधुओ ने सफेद वस्त्र धारण करना प्रारभ कर दिया । दक्षिण भारत से लौटे हुए जैन साधुओ ने इसका विरोध किया, क्योकि वे पूर्ण नग्नता को महावीर की शिक्षाओ का आवश्यक भाग मानते थे। विरोध का शात होना असभव पाया गया और इस तरह श्वेताबर (जिसके साधु सफेद वस्त्र धारण करते है) और दिगबर (जिसके साधु एकदर नग्न रहते हैं) सप्रदाय उत्पन्न हुए। जैन समाज आज भी दोनो मप्रदायो में विभाजित है। -प्राचीन भारत, पृ. 149 (ग) केबिज हिस्ट्री में भद्रबाहु के दक्षिण गमन का निर्देश करके आगे लिखा है “यह समय जैन संघ के लिए दुर्भाग्यपूर्ण प्रतीत होता है और इममे कोई मदेह नही है कि ईस्वी पूर्व 300 के लगभग महान सघ भेद का उद्भव हुआ, जिसने जैन सघ को श्वेताबर और दिगबर मप्रदायों में विभाजित कर दिया । दक्षिण से लौटे हुए साधुओ ने, जिन्होने दुर्भिक्ष के काल मे बड़ी कड़ाई के साथ अपने नियमों का पालन किया था, मगध मे रह गए अपने अन्य साथी साधुओ के आचार से असतोष प्रकट किया तथा उन्हे मिथ्या विश्वासी और अनुशासनहीन घोषित किया।" -केबिज हिस्ट्री ऑफ इंडिया क. हि. (संस्करण 1955), पृ. 147 (घ) विश्वेश्वरनाथ रेणु ने लिखा है-“कुछ समय बाद जब अकाल निवृत्त हो गया और कर्नाटक से जैन लोग वापिस लौटे तब उन्होंने देखा कि मगध के जैन माधु पीछे से निश्चित किए गए धर्म ग्रंथों के अनुसार श्वेत वस्त्र पहनने लगे, परतु कर्नाटक से लौटने वाले साधुओं ने इस बात को नहीं माना । इससे वस्त्र पहनने वाले साधु श्वेताबर और नग्न रहने वाले साधु दिगबर कहलाए। -भारत के प्राचीन राजवंश, पृ. 41
SR No.010222
Book TitleJain Dharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramansagar
PublisherShiksha Bharti
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy