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________________ 40 / जैन धर्म और दर्शन कहा गया है। महावीर के बचपन का नाम वर्धमान था किंतु समय-समय पर घटित होने वाली विभिन्न घटनाओं के कारण वीर, अतिवीर, सन्मति, महावीर आदि नाम / उपाधियां भी उनके नाम के साथ जुड़ गए। भगवान महावीर के समय देश की स्थिति अत्यंत अराजक थी। चारों ओर हिंसा का बोलबाला था। धर्म के नाम पर प्रतिदिन हजारों निरपराध पशुओं की बलियां दी जाती थीं । समाज का अभिजात वर्ग अपनी तथा कथित उच्चता के अभिमान में निम्नवर्ग का हर प्रकार से शोषण कर रहा था। वे मनुष्य होकर भी मानवोचित अधिकारों से वंचित । कुमार वर्धमान का मन इस हिंसा और विषमता से होने वाली मानवता के उत्पीड़न से बैचेन था । इस विषम परिस्थिति ने उन्हें आत्मानुसंधान की ओर प्रवृत्त किया । अतः वे तीस वर्ष की भरी जवानी में विवाह के प्रस्ताव को ठुकराकर मार्ग शीर्ष कृष्ण दसवीं (29 नवंबर ई.पू. 569) के दिन समस्त राज-पाठ का त्याग कर दिगंबरी दीक्षा धारण कर लिए। वे बारह वर्ष तक कठिन मौन साधना में रत रहे । परिणामस्वरूप वैशाख शुक्ल दसवीं (23 अप्रैल ई. पूर्व 557) के दिन बिहार के जृम्भक गांव के ऋजुकूला नदी के किनारे उन्हें केवल ज्ञान की उपलब्धि हुई । वे पूर्ण वीतरागी सर्वज्ञ सर्वदर्शी परमात्मा बन गए। वहां से चलकर वे राजगृह के बाहर स्थित विपुलाचल पर्वत पर पहुंचे। वहां उन्होंने श्रावण कृष्णा प्रतिपदा के दिन अपना प्रथम धर्मोपदेश दिया । उनका उपदेश सर्वग्राह्य अर्धमागधी भाषा में हुआ। यही उनका प्रथम धर्मचक्र प्रवर्तन था । (तीर्थंकर महावीर ने किसी नये धर्म का प्रवर्तन नहीं किया था, बल्कि पूर्व तीर्थंकरों द्वारा प्रवर्तित धर्म का ही पुनरुद्धार किया था उनकी धर्मसभा समवशरण कहलाती थी । जहाँ जन समुदाय को बिना किसी वर्ण, वर्ग, जाति, लिंग आदि के भेदभाव के कल्याणकारी उपदेश दिया जाता था। इंद्रभूति अग्निभूति, वायुभूति, आर्यव्यक्त, सुधर्म, मण्डिक पुत्र, मौर्य पुत्र, अकंपित, अचल, मैत्रेय और प्रभास उनके ग्यारह गणधर या प्रधान शिष्य थे । महासती चंदना उनके अर्जिका/ साध्वी संघ की प्रधान थी । सम्राट श्रेणिक उनके प्रधान श्रोता थे तथा महाराज्ञी चेलना श्रावक संघ की नेत्री थीं। इस प्रकार उन्होंने मुनि, आर्यिका श्रावक, श्राविका रूप चतुर्विध संघ की स्थापना की। जिसमें सभी वर्गों / जातियों के लोग सम्मिलित थे। तीस वर्षों तक देश देशांतरों में विहार करके उन्होंने लोक मुक्ति की राह दिखाई। अनेक राज्यों की राजधानियों में उनका विहार हुआ और तात्कालीन राजा-महाराजाओं में अधिकांश उनके उपदेशों से प्रभावित हुए। उनमें से अनेकों ने श्रमण दीक्षा ग्रहण कर आत्मा साधना की । लाखों लोग उनके अहिंसा, संयम, समता और अनेकांत मूलक उपदेशों से प्रभावित होकर अनुयायी बने । भारतवर्ष में प्रायः प्रत्येक भाग में महावीर के अनुयायी थे। भारत के बाहर भी गांधार, कपिसा, पारसीक आदि देशों में उनके भक्त थे । अंत में 72 वर्ष की अवस्था में कार्तिक कृष्ण अमावस्या (15 अक्टूबर, मंगलवार ईसा पूर्व 527) के दिन प्रातःकाल ब्रह्म मुहूर्त में मध्यम पावानगर के कमल सरोवर के मध्य स्थित द्वीपाकार स्थल प्रदेश से उन्होंने निर्वाण लाभ प्राप्त किया। उस स्थान पर आज भी एक विशाल मंदिर बना हुआ है, जो हमें भगवान महावीर के निर्वाण का स्मरण दिलाता है ।
SR No.010222
Book TitleJain Dharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramansagar
PublisherShiksha Bharti
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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