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________________ जैन इतिहास-एक झलक/39 तीर्थकर पार्श्वनाथ तेईसवे तीर्थकर पार्श्वनाथ का जन्म वाराणसी मे हुआ था। ये उग्रवशी राजा अश्वसेन और महारानी वामादेवी के पुत्र थे। 30 वर्ष की अवस्था मे इनका मन वैराग्य से भर उठा और कुमार अवस्था में ही समस्त राज पाट छोडकर इन्होने दिगबरी दीक्षा धारण कर तपस्या मार्ग अपना लिया। कुछ दिन तक दुईर तप करने के उपरात इन्हे कैवल्य की उपलब्धि हई। तदतर देश देशातरो मे भ्रमण करते हुए उन्होने जैन धर्म का उपदेश दिया। अत मे 100 वर्ष की अवस्था मे बिहार प्रदेश मे स्थित सम्मेद शिखर मे निर्वाण लाभ किया। वह पर्वत तब से आज भी पारसनाथ के नाम से विख्यात है। जैन पुराणों के अनुसार इनके और महावीर के निर्वाण काल मे 250 वर्ष का अतर है । इतिहासकारो के अनुसार इनकी जन्मतिथि 877 ई पू तथा निर्वाण तिथि 777 ई पू है। पार्श्वनाथ की ऐतिहासिकता तीर्थकर पार्श्वनाथ की ऐतिहासिकता के बारे मे भी किसी प्रकार के सदेह के लिए कोई स्थान नही है । बौद्ध और जैन ग्रथो मे इनके शिष्यों का उल्लेख मिलता है। उनके स्तूप, मदिर और मूर्तिया स्वय उनके काल से अब तक की बराबर मिलती है, जिनसे उनका अस्तित्व प्रमाणित होता है। डॉ जार्ल चारपेटर, डॉ गिरिनाट,डॉ हर्सवर्थ, प्रो रामप्रसाद चद्रा,डॉ विमल चरण लाहा तथा डॉ जिम्मर प्रभृति अनेक विद्वान् इनकी ऐतिहासिकता को स्वीकार करते हुए कहते है कि 'भगवान् पार्श्व अवश्य हुए, जिन्होंने लोगो को शिक्षाए दी थी। इनकी ऐतिहासिकता स्वय सिद्ध है। तीर्थकर महावीर अतिम तीर्थकर महावीर का जन्म चैत्र शुक्ल त्रयोदशी (27 मार्च ईस्वी पूर्व 598) के दिन कुड ग्राम में हुआ। कुड ग्राम प्राचीन भारत के व्रात्य क्षत्रियों के प्रसिद्ध वज्जि सघ के वैशाली गणतत्र के अतर्गत था। वर्तमान मे उस स्थान की पहचान बिहार के वैशाली नगर से की गई है । वहा भगवान महावीर का स्मारक भी बना हुआ है । उनके पिता सिद्धार्थ वहा के प्रधान थे। वे ज्ञातृवशी काश्यप गोत्रीय क्षत्रिय थे तथा माता त्रिशला उक्त सघ के अध्यक्ष लिच्छवि नरेश चेटक की पुत्री थी। उन्हे प्रियकारिणी देवी के नाम से सबोधित किया जाता था। नाथवशी होने के कारण महावीर को बौद्ध ग्रंथों में नात पुत्र (नाथ पुत्र) भी 1 मज्झिम निकाय 1/25 2 उत्तराध्ययन गौतम केशी सवाद 3 ककाली टीला मथुरा का जैन स्तूप उनके ही समय बना था। 4 देखे भारतीय इतिहास एक दृष्टि पृ 47 5 At least with respect to Paishva the Tirthankara just preceding Mahavira We have grounds fare Parshva beleving that he actualy lived thought Parshva s the first of Long Series Whom we can fairly visualize in all historical setting -Philosophies of India
SR No.010222
Book TitleJain Dharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramansagar
PublisherShiksha Bharti
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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