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________________ जैन इतिहास-एक झलक/29 मुनयो वातरसनाः पिशंगा वसते मला । वातस्यानुघ्राजिं यंति यद्दवासो अविक्षत ।। उन्मदिता मौनेयेन वातां आतस्थिमा वयम। शरीरादेस्माकं यूयं मर्तासो अभि पश्यथ ॥ अर्थात् अतींद्रियार्थदर्शी वातरसना मुनि मल धारण करते हैं जिससे वे पिंगल वर्ण दिखाई पड़ते हैं। जब वे वायु की गति को प्राणोपासना द्वारा धारण कर लेते हैं अर्थात् वे रोक लेते हैं, तब वे अपने तप की महिमा से दीप्तिमान होकर देवता स्वरूप प्राप्त हो जाते हैं। सर्वलौकिक व्यवहार को छोड़कर वे मौनेय की अनुभूति में कहते हैं “मुनिभाव से प्रमुदित होकर हम वायु भाव में स्थित हो गए। मत्यों । तुम हमारा बाह्य शरीर मात्र देखते हो, हमारे अभ्यंतर शरीर को नहीं देख पाते।" यह वर्णन निश्चित ही किसी वैदिकेतर तपस्वी का है और वे तपस्वी ऋषभदेव ही होंगे। तैत्तरीयारण्यक 7.1 में इन्हीं वातरसना मुनियों को 'श्रमण' और 'उर्ध्वमंथी' भी कहा है। साथ ही उसमें ऋषभदेव का भी उल्लेख है-'वातरसना हवा ऋषभाः श्रमणा उर्ध्वमंथिनों वभूतुः । 2 श्रीमद्भागवत में श्रमणों की प्रशंसा करते हुए कहा गया है कि जो वातरसना उर्ध्वमंथी श्रमण मुनि हैं वे शांत,निर्मल,संपूर्ण परिग्रह से सन्यस्त ब्रह्मपद को प्राप्त करते हैं। वातरसना मुनियों का संबंध दिगंबर श्रमणों से ही है, इसलिए निघंटू की भूषण टीका में श्रमण शब्द की व्याख्या इस रूप में की है श्रमणा दिगंबराः श्रमणाः वातरसना। भागवत 11/2 में उपर्युक्त व्याख्या का समर्थन इसी प्रकार करते हुए कहा गया है श्रमणा वातरसना आत्म विद्या विशारदाः। श्रमण दिगंबर मुनि का ही नामांतर है। आचार्य जिनसेन ने आदि पुराण में वातरसन शब्द का अर्थ निर्मथ, निरंबर, दिगंबर करते हुए कहा हैदिगवासां वातरसना निर्मथेशो निरंबरः। आदि पुराण इसी प्रकार ऋग्वेद में अनेक स्थलों पर केशी, अर्हन् यति और व्रात्यों का उल्लेख आया है। विद्वानों के अनुसार उनका संबंध भी जैन संस्कृति से ही है। ऋग्वेद के गवेषणात्मक अध्ययन के आधार पर डा. सागर मल जैन ने ऋग्वेद में अर्हत और ऋषभवाची ऋचाएं' नामक लेख में लिखा है "ऋग्वेद में न केवल सामान्य रूप से श्रमण परंपरा और विशेष रूप से जैन परंपरा से संबंधित अर्हत, अहंत, व्रात्य, वातरसना मुनि,श्रमण आदि शब्दों का उल्लेख मिलता है अपितु उसमें अहंत परंपरा के उपास्य वृषभ का भी उल्लेख शताधिक बार मिलता है। मझे ऋग्वेद में वृषभवाची 112 ऋचाएं प्राप्त हुई हैं। संभवतः कुछ और ऋचाएं भी मिल सकती हैं । यद्यपि यह 1. ऋग्वेद 10, 136,2-3 2. जैन दर्शन और सस्कृति का इतिहास पृ,11 3 डॉ गोकुल प्रसाद के अनुसार ऋग्वेद में 141 ऋचाओ में ऋषभदेव का स्तुतिपरक उल्लेख एव उत्कीर्तन हुआ है जिनमें ऋषभदेव को पूर्वज्ञान का प्रतिपादक और दुःखों का नाशक कहा गया है। -णाणसायर ऋषभ अक पृ. 21
SR No.010222
Book TitleJain Dharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramansagar
PublisherShiksha Bharti
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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