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________________ 264 / जैन धर्म और दर्शन है किंतु हम उन्हें असत्य या अवास्तविक तो नहीं कह सकते। सब चित्रों को यथाक्रम मिलाया जाए तो हिमालय का पूर्ण चित्र अपने-आप हाथ आ जाएगा। खंड-खंड हिमालय अखंड आकृति ले लेगा और इसके साथ ही हिमालय के दृश्यों का खंडित सौंदर्य अखंडित सत्य की अनुभूति को अभिव्यक्ति देगा। यही बात वस्तुगत सत्य के साथ है। हम वस्तु के एकपक्ष से उसके समग्र रूप को नहीं जान सकते । वस्तु के विभिन्न पक्षों को अपने नाना संदर्भो के बीच सुंदर समन्वय स्थापित करने के बाद ही हम वास्तविक बोध प्राप्त कर सकते हैं। अनेकांत की आवश्यकता वस्तु के यथार्थ ज्ञान के लिए अनेकांत की महती आवश्यकता है। किसी वस्तु/बात को ठीक-ठीक न समझकर उसके ऊपर अपने हठपूर्ण विचार अथवा एकांत आग्रह लादने पर बड़े अनर्थों की संभावना रहती है। इस विषय में एक परंपरित कथा है एक गांव में पहली बार हाथी आया। गांव वालों ने अब तक हाथी देखा नहीं था। वे हाथी से परी तरह अपरिचित थे। उस गांव में पांच अंधे भी रहते थे। उन्होंने भी जब सुना कि गांव में हाथी आया है तो सभी की तरह वे भी प्रदर्शन स्थल पर पहुंचे। आंखों के अभाव में सबने हाथी को छूकर अलग-अलग देखा । उनमें से एक ने कहा, "हाथी रस्सी की तरह है, उसने पूंछ को छुआ था। दूसरे ने उसके पैर को छुआ और कहा कि “हाथी तो खंबे जैसी कोई आकृति है ।” तीसरे ने हाथी की सूंड को छुआ और कहा, “अरे ! यह तो कोई झूलने वाली वस्तु की आकृति का प्राणी है ।” चौथे ने हाथी के पेट/घड़ को छुआ और कहा “हाथी तो दीवार की तरह है। पांचवें ने उसके कान को स्पर्श किया और कहा,“हो न हो यह तो सूप की आकृति वाला कोई प्राणी है।" अलग-अलग अनुभवों के आधार पर पांचों के अपने-अपने निष्कर्ष थे। पांचों ने हाथी को अंशों में जाना था। परिणामतः पांचों एक जगह बैठकर हाथी के विषय में झगड़ने लगे। सब अपनी-अपनी बात पर अड़े थे। इतने में एक समझदार आंख वाला व्यक्ति आया। उसने उनके विवाद का कारण जानकर कहा,“भाई झगड़ते क्यों हो? तुम सब अंधेरे में हो, तुममें से किसी ने भी हाथी को पूर्ण नहीं जाना है। केवल हाथी के एक अंश को जानकर और उसी को पूर्ण हाथी समझकर आपस में लड़ रहे हो । ध्यान से सुनो-मैं तुम्हें हाथी का पूर्ण रूप बताता हूं । कान, पेट,पैर, सूंड और पूंछ आदि सभी अवयवों को मिलाने पर हाथी का पूर्ण रूप होता है । कान पकड़ने वालों ने समझ लिया कि हाथी इतना ही है और ऐसा ही है। पैर आदि पकड़ने वालों ने भी ऐसा ही समझा है; लेकिन तुम लोगों का ऐसा समझना कूप-मंडुकता है। कुंए में रहने वाला मेंढक समझता है संसार इतना ही है। हाथी का स्वरूप केवल कान, पैर आदि ही नहीं है, किंतु कान-पैर आदि सभी अवयवों को मिला देने पर ही हाथी का पूर्ण रूप बनता है।" अंधों को बात समझ में आ गयी। उन्हें अपनी-अपनी एकांत दृष्टि पर पश्चाताप हआ। सभी ने हाथी विषयक पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर संतोष का अनुभव किया। समन्वय का श्रेष्ठ साधन यथार्थ में अनेकांत पूर्णदर्शी है और एकांत अपूर्णदर्शी।
SR No.010222
Book TitleJain Dharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramansagar
PublisherShiksha Bharti
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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