SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 273
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनेकांत और स्यादवाद / 263 शिक्षक ने छात्रों के सामने बोर्ड पर एक रेखा खींची और कहा कि “इस रेखा को बिना मिटाए छोटी करो।" सभी छात्र सोच में पड़ गये कि रेखा को मिटाए बिना उसे छोटी कैसे किया जा सकता है? किंतु एक चतुर छात्र उठा उसने चॉक उठाया और उस रेखा के नीचे बड़ी रेखा खींच दी। पहली रेखा आपों-आप छोटी हो गयी। सारे छात्र चकित थे। शिक्षक ने पुनः कहा “अब इस रेखा को छोटी करो।” छात्र पुनः उठा और उसके नीचे एक बड़ी रेखा और खींच दी। वह रेखा भी छोटी हो गयी। इस प्रकार एक ही रेखा किसी अपेक्षा से बड़ी है तो किसी अपेक्षा से छोटी भी है। इस उदाहरण में सिर्फ इतना ही बताना है कि उस रेखा में 'लघुत्व' और 'दीर्घत्व' परस्पर विरुद्ध धर्म स्वरूपतः विद्यमान है और उसके ऊपर खींची गयी बड़ी और छोटी रेखाओं के कारण उसमें छोटेपन और बड़ेपन की अपेक्षा से व्यवहार हुआ। इससे स्पष्ट है कि वस्तु में परस्पर विरोधी धर्म विद्यमान हैं। परस्पर विरोधी धों का सही मूल्यांकन सापेक्ष/अनेकांत दृष्टि अपनाने पर ही संभव है। यदि हम वस्तु के एक धर्म को पकड़कर उसमें ही पूरी वस्तु का निश्चय कर बैठते हैं तो हमें वस्तु का सही परिज्ञान नहीं हो सकता। सत्य साधक दृष्टि : यह अनेकांत दृष्टि हमें एकांगी विचार से बचाकर सर्वांगीण विचार के लिए प्रेरित करती है। इसका परिणाम होता है कि हम सत्य को समझने लगते हैं। सत्य को समझने के लिए अनेकांत दृष्टि ही एकमात्र साधन है। जो विचारक वस्तु के अनेकांत धर्म को अपनी दृष्टि से ओझल कर उसके किसी एक ही धर्म को पकड़कर बैठ जाते हैं, वे सत्य को नहीं पा सकते। - वस्तु के उक्त स्वरूप को नहीं समझ पाने के कारण ही विभिन्न मतवादों की उद्भूति हुई है तथा सब अपने मत को सत्य मानने के साथ-साथ दूसरे के मत को असत्य करार दे रहे हैं। नित्यवादी पदार्थ के नित्य अंश को पकड़कर अनित्यवादियों को भला-बुरा कहता है, तो अनित्यवादी नित्यवादियों को उखाड़ फेंकने की कोशिश में है। सभी वस्तु के एक पक्ष को ग्रहण कर सत्यांश को ही सत्य मानने का दुरभिमान कर बैठे हैं। अनेकांत दृष्टि कहती है कि “भाई ! वस्तु को समग्रतः जानने के लिए समग्र दृष्टि की जरूरत है। हम अपने एकांत दृष्टि से वस्तु के एक अंश को ही जान सकते हैं, सत्यांश कभी भी पूर्ण सत्य नहीं हो सकता। वस्तु के विविध संदों पर विचार करने पर ही उसका संपूर्ण बोध हो सकता है। वस्तु के एक अंश को जानकर उसे ही पूर्ण वस्तु मान बैठना हमारी भूल है। उसके विभिन्न पहलुओं को मिलाने का प्रयास करो, वस्तु अपने पूर्ण रूप में साकार हो उठेगी। इस तथ्य को हम इस उदाहरण से समझ सकते हैं मान लीजिए हिमालय पर अनेक पर्वतारोही विभिन्न दिशाओं से चढ़ते हैं, और भिन्न-भिन्न दिशाओं से उसके चित्र खींचते हैं। कोई पूर्व से,कोई पश्चिम से, कोई उत्तर से, कोई दक्षिण से । यह तो निश्चित है कि भिन्न-भिन्न दिशाओं से लिए गए चित्र भी एक-दूसरे से भिन्न होंगे। फलतः वह एक-दूसरे से विपरीत दिखाई पड़ेंगे। ऐसी स्थिति में कोई हिमालय के एक ही दिशा के चित्र को सही बताकर अन्य दिशा के चित्रों को झूठा बताए या उसे हिमालय का मानने से स्पष्ट इंकार कर दे तो उसे हम क्या कहेंगे? वस्तुतः सभी चित्र एकपक्षीय हैं। हिमालय का एकदेशीय प्रतिबिंब ही उसमें अंकित
SR No.010222
Book TitleJain Dharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramansagar
PublisherShiksha Bharti
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy