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________________ श्रावकाचार/233 1. सामायिक-समय आत्मा को कहते हैं। आत्मा के गुणों का चितन कर समता का अभ्यास करना सामायिक है । गृहस्थ प्रतिदिन दोनों संध्याओं में एक स्थान पर बैठकर समस्त पापों से विरत हो आत्म-ध्यान का अभ्यास करता है। सामायिक ध्यान का श्रेष्ठ साधन है। मन की शुद्धि का श्रेष्ठ उपाय है । पांचों व्रतों को पूर्णता सामायिक में हो जाती है । सामायिक के काल में वह व्रती गृहस्थ,संसार,शरीर और भोगों के स्वरूप का चिंतन कर अपने मन को उनसे विरक्त करने का अभ्यास करता है । वह विचारता है कि संसार अशरण है, अशुभ है,संसार में दुःख ही दुःख है तथा वह नष्ट होने वाला है एवं मोक्ष उससे विपरीत है।' इस प्रकार की भावनाओं द्वारा अपने वैराग्य को दृढकर समता में स्थिर होता है । इस अभ्यास में णमोकारादि पदों का बार-बार नियत उच्चारण करना सहायक होने से वह भी सामायिक है,परंतु सामायिक में शब्दोच्चारण की अपेक्षा चिंतन की ही मुख्यता रहती है। 2. प्रोषधोपवास : प्रोषध का अर्थ होता है एकाशन ।' दोनों पक्षों की अष्टमी तथा चतुर्दशी को पर्व कहते हैं,पर्व के दिनों में एकाशनपूर्वक उपवास करना प्रोषधोपवास व्रत है।' प्रोषधोपवास की विधि : साधक प्रत्येक पक्ष की अष्टमी और चतुर्दशी को उपवाम करता है । इसके पूर्व सप्तमी और त्रयोदशी को एकाशन करके जिनालय या गुरुओं के पास जाकर चारों प्रकार के आहार का त्याग करता है तथा शेष दिन धर्मध्यानपूर्वक बिताता है । इसी प्रकार अष्टमी या चतुर्दशी को भी धर्मध्यानपूर्वक बिताकर नवमी अथवा पंद्रस के दिन प्रातः देव-पूजन कर अभ्यागत अतिथि को भोजन कगकर अनामक्त भाव से भोजन ग्रहण करता है। यह प्रोषधोपवास व्रत की उत्तम विधि है। इसमें अममर्थ रहने वाला साधक मात्र जल या नीरस भोजन करता है। उससे भी असमर्थ रहने वालों के लिए कम से कम अष्टमी और चतुर्दशी को एकाशन करने का विधान है। इस व्रत के माध्यम से पक्ष में कम से कम दो दिन मनियों की तरह एकाशन करने का अवसर मिल जाता है। उपवास के दिनों को घर-गृहस्थी और व्यवसाय धंधे के समस्त कार्यों को छोड़कर धर्मध्यानपूर्वक बिताना चाहिए। उपवास का अर्थ मात्र भोजन का त्याग ही नहीं है, अपित पांचों इंद्रियों के विषयों को त्यागकर आत्मा के पास बैठने को उपवास कहते हैं । विषयों से विरक्त हए बिना उपवास करना निष्फल है। वह तो लंघन की कोटि में आता है। 3. भोगोपभोग परिमाण व्रत : भोग और उपभोग के साधनों को कुछ समय या जीवन पर्यन्त के लिए त्याग करना भोगोपभोग परिमाण व्रत कहलाता है। भोजन, माला आदि एक ही बार उपयोग में आने योग्य वस्तु को भोग कहते हैं तथा वस्त्राभूषण आदि बार-बार उपयोग में आने वाली सामग्री उपभोग कहलाती है। यह भोगपभोग परिमाण व्रत 1.र क. प्रामू 97 2. वही, 101 3. र क. प्रा मू. 104 4. प्रोषधः सकृद मुक्तिः । र क श्रा. 109 5. वही, 106 6. का अनु. टी. 358-359 7. सर्वा. सि. 7721, पृ 280 8: रकबा 83
SR No.010222
Book TitleJain Dharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramansagar
PublisherShiksha Bharti
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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