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________________ 232/ जैन धर्म और दर्शन आवश्यकताओं एवं प्रयोजन के अनुसार आवागमन को सीमित समय के लिए कम करना देश व्रत कहलाता है। इस व्रत में वह सीमा बांध लेता है कि मैं अमुक समय तक अमुक स्थान तक ही लेन-देन का संबंध रखूगा। (उससे बाहर के क्षेत्र से न तो कुछ वह मांगता है, न ही भेजता है) यही उसका देशवत है। इच्छाओं को रोकने का यह श्रेष्ठ साधन है।' अनर्थदंड त्याग व्रत : बिना प्रयोजन पाप के कार्य करने को अनर्थदंड कहते हैं। इनका त्याग करना अनर्थदंड त्याग व्रत है। इस व्रत के पांच भेद हैं (1) पापोपदेश बिना प्रयोजन खोटे व्यापार आदि पाप क्रियाओं का उपदेश देना।' (2) हिंसादान-अस्त्र-शस्त्रादि हिंसक उपकरणों का दान देना तथा उनका व्यापार करना, इससे दूसरों की जान भी ली जा सकती है। (3) अपध्यान कोई हार जाए, कोई जीत जाए, अमुक का मरण हो जाए, अगुक को लाभ हो जाए, अमुक को हानि हो जाए, बिना प्रयोजन इस प्रकार के चिंतन को अपध्यान कहते हैं। व्रती इसका भी त्याग कर देता है। इन क्रियाओं में व्यर्थ ही समय नष्ट होता है, तथा पाप का संग्रह होता है। (4) प्रमाद चर्या-बिना मतलब पृथ्वी खोदना, पानी बहाना, बिजली जलाना, पंखा चलाना, आग जलाना तथा वनस्पति काटना/तोड़ना आदि प्रदूषण फैलाने वाली क्रियाओं को प्रमाद चर्चा कहते हैं।' (5) दुःश्रति चित्त को कलुषित करने वाले अश्लील साहित्य पढ़ना, सुनना तथा अश्लील गीत,नाटक एवं सिनेमा देखना दुःश्रुति है । चित्त में विकृति उत्पन्न करने वाले होने के कारण व्रती को इनका भी त्याग करना चाहिए। इसके अतिरिक्त दूसरों से व्यर्थ हंसी-मजाक करना,कुत्सित चेष्टाएं करना,व्यर्थ बकवाद करना तथा जिससे स्वयं को कोई लाभ न हो तथा दूसरों को व्यर्थ में कष्ट उठाना पड़े,इस प्रकार हिताहित का विचार किये बिना कोई भी कार्य नहीं करना चाहिए। साथ ही भोगापभोग के साधनों को आवश्यकता से अधिक संग्रह करना भी एक शुद्ध गृहस्थ के लिए अनुचित हैं । ये सब क्रियाएं भी अनर्थ दंड के अंतर्गत ही आती हैं। शिक्षावत उक्त तीन गुणवतों के साथ वह चार शिक्षाव्रतों का भी पालन करता है, वे हैं सामायिक,प्रोषधोपवास, भोगोपभोग, परिमाण तथा अतिथि संविभाग व्रत। इनसे मुनि बनने की शिक्षा/प्रेरणा मिलती है। इसलिए इन्हें शिक्षा व्रत भी कहते हैं। वह इन्हें विशेष रूप से पालता है। साधु अवस्था में जिन कार्यों को विशेष रूप से करना होता है उनका अभ्यास करना ही शिक्षाव्रत का प्रमुख उद्देश्य है। 1. का अनु 367-68 2. वही,393 3. वही, 346 4. वही, 367 5.रका78 6. वही,80 7. वही,79 8. वही 81 9. पग आ 2082-83 10. शिक्षा अभ्यासाय बतं (शिक्षा क्तम) सापटी.44
SR No.010222
Book TitleJain Dharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramansagar
PublisherShiksha Bharti
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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