SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 237
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रावकाचार/ 227 ने मूल गुणों में कुछ सशोधन कर अलग प्रकार से परिगणना की है, कितु सभी की मूल भावना अहिसात्मक आचरण की सुरक्षा की ही रही है। एक आचार्य ने मूल गुणों को निम्न प्रकार से परिगणित किया है मद्य,मास,मधु,रात्रि-भोजन,पीपल,ऊमर,बड कमर/अजीर,पाकर सदृश पच उदम्बर फलों का त्याग । अरिहत, सिद्ध, आचार्य उपाध्याय और माधु नामक पच परमेष्ठियो की स्तुति. जीव दया तथा पानी को वस्त्र द्वारा अच्छी तरह छानकर पीना यह आठ मल गण है। उपर्युक्त आठों बाते अहिसा की दृष्टि से कही गयी है. अर्थात एक जैन श्रावक को इतने नियमों का पालन तो अवश्य ही करना चाहिए। इसके बिना वह नाम का जेनो भी नहीं कहला सकता। जैन होने के यह मन चिह्न है। मद्य, माम एव मधु तो स्पष्ट हिसा के कारण होने से त्याज्य ही है, क्योकि इनके मेवन मे सकल्पी हिसा है तथा इस प्रकार का आहार मनुष्य की प्रकृति के विरुद्ध भी है। कुछ लोग तथाकथित अहिसक राहद को (जो मधुमक्खियों के उडने/उडाने के बाद निकाली जाती है) खाने की सलाह देते है। उनकी यह दलील है कि उसमे मधुमक्खियो का घात नही होता, अत उसके खाने में कोई दोष नही है। लेकिन उनकी उक्त मान्यता ठीक नही है। शहद का सेवन किसी भी अर्थ मे निर्दोष नहीं है क्योंकि शहद तो मधुमक्खियो की उगाल (थक) है। किसी भी प्राणी के उच्छिष्ठ पदार्थ का सेवन शिष्टजन नहीं करते तथा उम शहद मे अन्य भी छोटे छोटे त्रस जीव पाये जाते है। अत एक अहिमक महम्थ के लिए तो यह त्याज्य ही है। बड,पीपल, पाकर, ऊमर (गूलर), कठुमर (अजीर) इन पाचो फन्नो मे दृध निकलने के कारण ये क्षीर फल भी कहलाते है। इनके अदर बहमख्या मे त्रम जीव पाए जाते है। अत इनका भी त्याग करना चाहिए। जल गालन जल मे अनेक त्रम जीव पाए जाने है। वे इतने मृक्ष्म होते है कि दिखाई नही पडते । आधुनिक वैज्ञानिको ने सूक्ष्मदर्शी यत्रा की सहायता से देखकर एक बृट जल मे 36450 जलचर जीव बताए है । जैन ग्रथो के अनुसार उक्त जीवों को मख्या काफी अधिक है । ऐसा कहा जाता है कि एक जल बिदु मे इतने जीव पाए जाते है कि वे यदि कबूतर की तरह उडे तो पूरे जम्बू द्वीप को व्याप्त कर ले। उक्त जीवो के बचाव के लिए पानी को वस्त्र से छानकर पीना चाहिए। मनुस्मृति मे भी 'दृष्टिपृतम् न्यसेनवादम वस्त्रपूतम्' पिवेत् जलम्' कहकर पानी छानकर पीने की मलाह दी गयी है। 1 मद्य पल मधु निशाशन पचफलीविरति पचकाननुति जीव दया जलगालनमिति च क्वचिदष्ट मल गुणा सा ध2118 2 (अ) एक विन्दूवा जीवा परावन समायदि। भुत्वा चरन्ति चेज्जम्बु दीपोऽपि पूर्यते यन ॥ वन विधान सग्रह (ब) एगम्मि उदग विदुमि जे जीवा जिणवरेहिं पण्णत्ता । ते जई सरसिमित्ता जम्बू दीवेण मायति ॥ प्रवचन मारोद्धार 3 मनुस्मृति 6/46
SR No.010222
Book TitleJain Dharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramansagar
PublisherShiksha Bharti
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy