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________________ 16 / जैन धर्म और दर्शन जो धारण किया जा सके, वह धर्म है। जैन तत्त्व चिंतकों ने 'वत्थू सहावो धम्मो' वस्तु के स्वभाव को धर्म कहा है। संसार में ऐसा कोई भी पदार्थ नहीं है, जिसका कोई स्वभाव/धर्म न हो किंतु आचारस्वरूप धर्म सिर्फ जीवात्मा में ही पाया जाता है। अतः धर्म का संबंध आत्मा से है। इसलिए जीव के विशुद्ध आचरण/चरित्र को धर्म कहा गया है। यही आत्मा का स्वभाव है। इसी धर्म को विविध दृष्टियों से भिन्न-भिन्न रूपों में परिभाषित किया गया है। एक आचार्य के अनुसार दया करुणा धर्म की आधारशिला है। एक परिभाषा के अनुसार, जो व्यक्ति को दुःख के गर्त से निकालकर सुख के शिखर तक पहुंचा दे वह धर्म है। जीव के यथार्थ श्रद्धा, ज्ञान और आचरण को भी धर्म कहा गया है। इन सभी लक्षणों में जीव की जागतिक समस्याओं से मुक्ति का ध्येय निहित है। इनकी व्याख्या हम अगले प्रकरणों में करेंगे। उद्भव अब हम जैन इतिहास की ओर देखते हैं। जैन धर्म के इतिहास के संबंध में बहुत-सी भ्रांतियां फैलायी गयी हैं । इस क्षेत्र में जैनों के साथ न्याय नहीं हुआ है । प्रायः यही कहा जाता है कि जैन धर्म बौद्ध धर्म के समकालीन है तथा इसका पवर्तन भगवान महावीर ने किया था। यह कथन पक्ष व्यामोह एवं तद्विषयक अज्ञान का ही परिणाम है। प्राप्त ऐतिहासिक अभिलेखों एवं पुरातात्विक अवशेषों से जैन धर्म की प्राचीनता सिद्ध होती है । यह बात सुस्पष्ट है कि इस युग में जैन धर्म का प्रवर्तन प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव ने किया था। इनकी ऐतिहासिकता को सुप्रसिद्ध जर्मन विद्वान् डॉ. हर्मन जैकोबी,डॉ जिम्मर,डॉ.सेन,डॉ.राधाकृष्णन एवं वासुदेवशरण अग्रवाल जैसे प्रसिद्ध इतिहासवेत्ता भी स्वीकार करते हैं। भागवत 5/2/6 में भी जैन धर्म के संस्थापक ऋषभदेव का उल्लेख मिलता है। ऋग्वेद की अनेक ऋचाओं में भगवान ऋषभदेव का सम्मानपूर्वक स्मरण किया गया है। साथ ही उनमें जिन वातवसन और वातरसन मुनियों का उल्लेख मिलता है उनका भी संबंध जैन मुनियों से ही है। प्राचीन बौद्ध ग्रंथों में भी ऋषभदेव को जैन धर्म का प्रचारक कहा गया है। जैन धर्म के चौबीस तीर्थंकरों में से भगवान ऋषभदेव, नेमिनाथ पार्श्वनाथ एवं महावीर भगवान की ऐतिहासिकता असंदिग्ध है। इसके अतिरिक्त हड़प्पा-मोहनजोदड़ो की खुदाई से प्राप्त सीलों,मोहरों पर उत्कीर्ण कायोत्सर्ग मुद्राओं से जैन धर्म की ऐतिहासिकता के साथ-साथ उसकी प्राग्वैदिकता भी सिद्ध होती है। अस्तु इस पर विशेष विचार आगे इतिहास के प्रकरण में हम स्वतंत्र रूप से करेंगे। 1. जैन दर्शन, पृ. -2 2. ऋग्वेद 4/55/3, ऋग्वेद-10/136 3. देखो न्याय बिदु-1/142-51 4. देखें आगे जैन इतिहास एक झलक प्रकरण 5.सिंध फाइव थाइजेंड इअर्स एगो माडर्न रिव्यू, अगस्त-1932
SR No.010222
Book TitleJain Dharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramansagar
PublisherShiksha Bharti
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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