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________________ पृष्ठभूमि धर्म और उसका ध्येय भारत एक धर्म प्रधान देश है। आदिकाल से ही यहां के अनेक तत्त्व चिंतकों ने जीवन और जगत् के संबंधों को पहचाना है। उसके रहस्य को समझा है। व्यक्ति के सुख-दुःख, लाभ-हानि, जीवन-मरण, संयोग-वियोग के कारणों पर उनका ध्यान गया। उन्होंने व्यक्ति के राग द्वेषादिक द्वंद्वों तथा उसके जन्म और मृत्यु के चक्र से ऊपर उठने के मार्ग की गवेषणा की है। जिस प्रकार अपने दीर्घकालीन जीवन के अनेक प्रयोगों के बाद कोई निष्पत्ति वैज्ञानिकों के हाथ लगती है, वे वस्तु की तह में जाकर उसके मर्म को पकड़ते हैं तब उन्हें कोई सूत्र मिलता है । ठीक उसी तरह ऐहिक चिंताओं से मुक्त तथा दृष्टाओं ने अपनी आत्मा के अंतर्मथन से जो नवनीत प्राप्त किया है, धर्म उसकी ही अभिव्यक्ति है। उसी के निरूपण के लिए विविध दर्शनों की उभृति हुई है। 'दर्शन' का अर्थ होता है 'दृष्टि' । दर्शन विभिन्न दृष्टि बिंदुओं के वैचारिक पक्ष का नाम है, जबकि धर्म उसके आचारात्मक पक्ष का प्रतिनिधित्व करता है । आत्मा क्या है ? 'परलोक क्या है ? विश्व क्या है ? ईश्वर क्या है? आदि जिज्ञासाओं का समाधान दर्शन से ही किया जाता है। दर्शन के ही माध्यम से जीवात्मा अपनी अनंत शक्ति को पहचानकर परमात्म दशा को प्राप्त करने का मार्ग प्रशस्त करता है । यद्यपि धर्म और दर्शन अलग-अलग हैं, फिर भी इन दोनों में परस्पर घनिष्ठ संबंध है। विचारों का प्रभाव मनुष्य के आचरण पर अवश्य पड़ता है तथा व्यक्ति का आचार ही व्यक्ति के विचारों को अभिव्यक्ति दे सकता है। आचार के बिना विचार साकार रूप ग्रहण नहीं कर सकता। एक-दूसरे के अभाव में दोनों अधूरे और एकांगी हैं । व्यक्ति के आचार और विचारों का सम्यक् समायोजन ही धर्म का परम ध्येय है । सभी धर्मों के अपने सिद्धांत हैं, उनका अपना इतिहास है तथा उनकी अपनी-अपनी परंपराएं हैं। जहां तक जैन धर्म की बात है, उसके उद्भव, विकास, सिद्धांत, इतिहास और परंपराओं के संबंध में हमें समझना है। 'जैन' शब्द 'जिन' से बना। जिन शब्द संस्कृत के 'जी' धातु के गर्भ से जन्मा है। यह जीतने के अर्थ में प्रयुक्त है। अर्थात् जो इंद्रियों को जीतता है वह 'जिन' है। 'जिन' कोई ईश्वरीय अवतार न होकर काम क्रोधादिकों को जीतनेवाला सामान्य मनुष्य है। उस 'जिन' के अनुयायी 'जैन' कहलाते हैं। जैन का अर्थ हुआ 'जिन' का अनुसरण करनेवाला, 'जिन' के चरण-चिह्नों पर चलनेवाला । 'धर्म' शब्द संस्कृत के 'धृ' धातु से निष्पन्न है। इसका अर्थ धारण करना है। अर्थात्
SR No.010222
Book TitleJain Dharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramansagar
PublisherShiksha Bharti
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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