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________________ आत्मविकास के क्रमोन्नत सोपान / 205 10. सूक्ष्म-साम्पराय-अनिवृत्तिकरण गुण-स्थान में समस्त स्थूल-कषायों को उपशांत अथवा क्षीण कर एक मात्र संज्वलन लोभ (वह भी अत्यंत सूक्ष्म) के साथ साधक इस दसवें गुण-स्थान में प्रवेश करता है । इसीलिये इसे सूक्ष्म-साम्पराय कहते हैं। जैसे-गुफा से शेर के चले जाने के बाद भी गुफा में शेर की गंध बनी रहती है अथवा पानी की धार सूख जाने के बाद भी उसके निशान बने रहते हैं। ऐसी ही स्थिति यहां बनती है । कषायों की धार तो पूर्व में ही सूख चुकी अब उसकी निशान भर बची है। वह इतनी सूक्ष्म होती है कि दिखाई नहीं पड़ती पर आत्मा को प्रभावित करती रहती है। इस गुण स्थान के अंत समय में उक्त सूक्ष्म-लोभ को भी उपशमित अथवा क्षीण कर ग्यारहवें अथवा बारहवें गुण-स्थान में प्रवेश किया जाता है। ___11. उपशांत मोह : समस्त मोहनीय कर्म को उपशमित करने वाले साधक इस ग्यारहवीं भूमिका में प्रवेश करते हैं। चूंकि यहां कषाएं पूर्णतया उपशांत रहती हैं, अतः साधक को कुछ क्षण के लिए यहां वीतरागता का अनुभव तो होता है लेकिन भस्माच्छादित अग्नि की तरह भीतर कषायों के दबी रहने के कारण वे कछ क्षणों में पुनः उदय को प्राप्त हो जाते हैं। जिससे साधक मोहपाश में बंधकर पुनः नीचे की भूमिकाओं में आ जाता है। इस गण-स्थान से पतन करने वाला साधक प्रथम 'मिथ्यात्व' गण-स्थान तक भी आ सकता है। लेकिन पुनः अपने प्रयास के द्वारा ऊपर उठकर कषायों को प्रशमित अथवा विनष्ट कर प्रगति भी कर सकता है। 12. क्षीण-मोह : दसवें गुण-स्थान में सूक्ष्म लोभ का क्षय करने वाले साधक इस गणस्थान में आते हैं | समस्त मोहनीय कर्म का क्षय हो जाने के कारण इसका ६ यह सार्थक नाम है। समस्त कर्मों में मोहनीय कर्म ही प्रधान है। जिस प्रकार संग्राम में सेनानायक के आहत होते ही समस्त सेना स्वत: ही समर्पित हो जाती है। उसी प्रकार मोहनीय कर्म के क्षीण हो जाने से साधक इस भूमिका में प्रवेश कर शेष ज्ञानावरण, दर्शनावरण एवं अंतराय संज्ञक घातिया कर्मों का भी नाश कर देता है । इस गुण-स्थानवर्ती साधकों का कभी पतन नहीं होता। कषाय के क्षीण हो जाने से इनमें पूर्ण वीतरागता आ जाती है, कितु अभी इनकी यावस्था दर नहीं होती। (छद्म अर्थात लेश मात्र भी अज्ञान जिनमें वर्तता हो. उन्हें छद्यस्थ कहते है)। अतः इस गुण-स्थान को 'क्षीण-कषाय वीतराग-छद्मस्थ' भी कहते हैं। 13. सयोग केवली : यह साधक की परमात्म दशा की उपलब्धि का आरोहण है। इस अवस्था में आते ही साधक परमात्म दशा को प्राप्त कर लेते हैं। उन्हें भगवत्ता की उपलब्धि हो जाती है। ये ही अरिहंत कहलाते हैं । बारहवें गुणस्थान में घातिया कर्मों का क्षय हो जाने के कारण इस गुण-स्थान में प्रवेश करते ही उन्हें अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत सुख और अनंत वीर्य की सहज उपलब्धि हो जाती है। यही पूर्ण ज्ञानी कहलाते हैं। भूत, भविष्य और 1 त वा 9/1/21 2 तवा 9/1/22 3 5. स टी गा 13
SR No.010222
Book TitleJain Dharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramansagar
PublisherShiksha Bharti
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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