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________________ 204 / जैन धर्म और दर्शन क्षणक श्रेणी : जो साधक अपनी विशुद्धि के बल पर चारित्र मोहनीय कर्म का समूल विच्छेद करते हुये आगे बढ़ते हैं, वे क्षपक श्रेणी वाले कहलाते हैं। इसमें कर्म शत्रुओं का उपशम नहीं होता, अपितु समूल विध्वंस कर दिया जाता है। इसी कारण यह पुन: जागृत नहीं हो पाते। इसी श्रेणी वाले साधकों का अधःपतन नहीं होता। क्षपक श्रेणी पर आरूढ़ होनेवाले साधक अपना आत्मिक विकास करते हुये सर्व कर्मों का समूल नाश कर अंतिम सिद्धि को प्राप्त कर लेते हैं। दोनों ही श्रेणियाँ आठवें गुण-स्थान से प्रारंभ होती हैं। उपशम श्रेणी में आरूढ़ साधक ग्यारहवें गुण-स्थान तक जाकर नीचे गिर जाते हैं जबकि क्षपक श्रेणी में आरूढ़ साधक दसवें गुण-स्थान से सीधे बारहवें गुण-स्थान को प्राप्त करते हुए मुक्ति की यात्रा को पूर्ण करते हैं। :: यह आठवीं भूमिका है। जब साधक अपने चरित्र बल को विशेष रूप से बढ़ा लेते हैं और प्रमाद-अप्रमाद अवस्था के इस संघर्ष में विजयी बनकर स्थायी अप्रमत्त अवस्था (सातिशय अप्रमत्त) को प्राप्त कर लेते हैं, तब वे एक ऐसी शक्ति प्राप्त कर लेते हैं जिससे रहे-सहे मोह बल को नष्ट उपशमित किया जा सके। इस अवस्था में पहुंचते ही साधक असीम आनंद के सरोवर में डूब जाता है। बाहर के सारे संबंध छूट जाते हैं। इस भूमिका से वापसी की कोई संभावना नहीं रहती। वह प्रतिक्षण आगे बढ़ता चलता है। उसके साधना के नये-नये द्वार खुलते जाते हैं । उसमें अपूर्व वीर्योल्लास जगता है तथा असाधारण सामर्थ्य प्रकट होता है। वह प्रतिक्षण पूर्व में अननुभूत आत्मशुद्धि का अनुभव करने लगता है। उसे हर क्षण नयी-नयी अनुभूतियाँ होने लगती हैं। इसीलिए इस गुण-स्थान को अपूर्वकरण गुणम्थान कहते हैं। परिणामों की इस विशुद्धि के बल से साधक के अंदर एक अपूर्व शक्ति जागृत होती है तथा कषायों के विरुद्ध भावी संघर्ष-यात्रा का यहीं से शुभारंभ होता है जोकि दसवें गुण-स्थान तक जारी रहता है। 9. अनिवृत्तिकरण : अष्टम गुण-स्थान को पार कर साधक इस नवमें गुण-स्थान में आता है और चारित्र मोहनीय के शेष अंगों को उपशमन करने अथवा क्षीण करने के कार्य को विशेष गति देता है। इस भूमिका में आने के बाद इतनी समता आ जाती है कि शरीर गत भेद होते हुए भी समान काल में प्रविष्ट होने वाले विभिन्न साधकों के परिणाम भी सदृश हो जाते हैं। परिणामो गत निवृत्ति अर्थात् भेद न होने के कारण ही इस गुण-स्थान को अनिवृतिकरण कहते हैं। पूर्व में की गयी समस्त साधनाओं का फल यहां स्पष्ट दिखने लगता है। इस गुण-स्थान में आकर साधक अपने प्रबल साधना के प्रभाव से मोह सेना को नष्ट उपशमित कर स्थूल कषायों को नष्ट व उपशांत कर देता है तथा सक्ष्म काम-वासनाएं भी यहाँ विनष्ट हो जाती हैं। इसीलिये इसको बादर-साम्पराय भी कहा जाता है। 1 त वा 91118 2. छ पु 1/183
SR No.010222
Book TitleJain Dharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramansagar
PublisherShiksha Bharti
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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