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________________ 202 / जैन धर्म और दर्शन 4. सच्चे देव, गुरु और धर्म पर सच्ची श्रद्धा रखता है। उनके प्रति पूर्णरूपेण समर्पित रहता है। 5. पुत्र,स्त्री आदि बाह्य पदार्थों को आशाश्वत मानकर उन पर गर्व नहीं करता है। 6. संवेगादिक गुणों से युक्त होने के कारण वह विषयों में अधिक अनुरागी नहीं होता अपितु उनकी ओर हेय दृष्टि बनाए रखता है। संयता-संयत : यह पांचवीं भूमिका है। इसे विरताविरत अथवा देश संयम भी कहते हैं। इसमें व्यक्ति की आत्मिक-शक्ति और विकसित हो जाती है। यह असंयत सम्यक्-दृष्टि से एक कदम आगे बढ़ जाता है तथा वह पूर्वोक्त सम्यक्-दृष्टि के गुणों के साथ-साथ कुछ अंशों में संयम का पालन भी करने लगता है। वह पूर्णरूपेण तो संयम अंगीकार नहीं कर पाता, किंतु आंशिक रूप से संयम का पालन अवश्य करता है। इस अवस्था में स्थित साधक को जैन शास्त्रों में 'उपासक' अथवा 'श्रावक' भी कहा गया है। आंशिक रूप से व्रतों के पालन करने के कारण ही इस गुण-स्थान को देश-संयम कहते हैं। चूंकि इस अवस्था के जीव स्थूल पापों से विरक्त रहते हैं, अत: संयत अथवा विरत हैं तथा सूक्ष्म पापों का त्याग न कर पाने के कारण वे असंयत अथवा अविरत कहलाते हैं। इसी अपेक्षा से इस गुण-स्थान में संयतासंयत अथवा विरताविरत रूप परिणाम युगपत् हो जाता है। नैतिक जीवन का वास्तविक विकास इसी गुण-स्थान से प्रारंभ हो पाता है। 6. प्रमत विरत-छठे गुण-स्थान में साधक की आत्मशक्ति इतनी बढ़ जाती है कि वह देश विरति अर्थात् आंशिक विरति से सर्व विरति अर्थात् पूर्ण विरति की ओर आता है। अब वह अणुव्रती या उपासक न कहलाकर महावती साधक अथवा श्रमण कहलाने लगता है। इस भूमिका में हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह रूप पांचों पापों का पूर्णरूपेण परित्याग हो जाता है। इस अवस्था को नग्न दिगम्बर मुनि ही प्राप्त कर पाते हैं। सम्यक् चारित्र प्रकट हो जाने से यहां पूर्ण मोक्षमागे बन जाता है । वस्तुत: मुक्ति यात्रा का वास्तविक शुभारंभ यहीं से होता है। इतना कुछ होते हुए भी प्रमाद युक्त होने के कारण उनके आचरण में कुछ शिथिलता बनी रहती है इसलिए इन्हें चित्रालाचरणी भी कहा गया है। साधक अपनी आध्यात्मिक परिस्थितियों के अनुसार इस भूमिका से ऊपर भी उठ सकता है तथा नीचे भी गिर सकता 7. अप्रमत्त-विरत : यह आत्मध्यान की भूमिका है। इस भूमिका में कदम रखते ही साधक सब प्रकार के प्रमादों पर विजय पा लेते हैं। वह सतत् अप्रमत रहते हैं अर्थात आत्म-जागति बनाए रखते हैं। अपनी इसी जागरूकता के कारण निरंतर प्रगति पथ पर बढ़ते जाते हैं। आत्मानुभूति का स्वर्णिम प्रभात यहीं से फूटता है। प्रमाद से रहित हो 1. गी.जी.का 30 2. पं. सं.प्रगा 134-35 3. गो. जी.का33
SR No.010222
Book TitleJain Dharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramansagar
PublisherShiksha Bharti
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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