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________________ आत्मविकास के क्रमोन्नत सोपान / 201 मिथ्यात्वाभिमुख हो जाता है तो मिथ्यादृष्टि हो जाता है,तथा सम्यक् बोध को प्राप्त कर लेने पर सम्यक् दृष्टि हो जाता है। श्रद्धान और अश्रद्धानात्मक अवस्था होने से इसे मिश्र-गुणस्थान भी कहते हैं। जैनागम में इस गुण-स्थान की निम्नांकित विशेषताएं बतायी गयी हैं 1. इसमें श्रद्धान और अश्रद्धान युगपत प्रकट होता है। 2.इस गुण-स्थान वाले जीवन तो सकल संयम प्राप्त कर सकते हैं और न ही देश संयम । 3. इस गुण-स्थान में जीव की मृत्यु नहीं होती। सम्यक्त्व या मिथ्यात्व परिणामों के होने पर ही मृत्यु होती है। 4. इस में आयु कर्म का बंध नहीं होता, न ही मारणान्तिक समुद्घात ।' अविरत सम्यदृष्टि-यह विकास की चतुर्थ भूमिका है। सम्यक् बोध प्राप्त होने पर इस गण स्थान की प्राप्ति होती है। सम्यक बोध प्राप्त हो जाने के बाद भी जी कमजोरी वश संयम अंगीकार नहीं कर पाते इसीलिए असंयत सम्यक दृष्टि कहलाते हैं।' अनुकूल संयोगों के जुटने पर जीव अपने पुरुषार्थ से मोह-ग्रंथि को भेदकर जब मिथ्यात्व पर विजय प्राप्त करता है. तब यह अवस्था प्राप्त होती है। इस अवस्था में मोह की शिथिलता के कारण सम्यक् श्रद्धा अर्थात् सद्विवेक तो प्राप्त हो जाता है, परन्तु सम्यक् चारित्र का अभाव रहता है। इस अवस्था में विचार शुद्धि का सद्भाव रहते हुए भी आचार शुद्धि का असद्भाव रहता है। यद्यपि चारित्र मोहनीय के उदय से असंयत सम्यकदृष्टि संयम ग्रहण नहीं कर पाता, फिर भी दृष्टि में समीचीनता आ जाने से उसमें कुछ विशिष्ट गुण प्रगट हो जाते हैं। वे हैं-प्रशम,संवेग, अनुकम्पा और आम्निक्य । सम्यक दृष्टि हो जाने के बाद उसके क्रोधादिक कषायों का उद्रेक नहीं आता। वह अपने सदविवेक से अपनी भावधारा को संभाले रहता है, यही उसका 'प्रशम' गुण है। क की वृद्धि हो जाने से तथा निरन्तर मंसार से भयभीत रहने के कारण उसमें विषयों से विरक्ति का भाव जगने लगता है। यह उमका 'मंवेग' गुण है। उसका मन दया से भीगा हुआ रहता है, वह दीन-दुखियों की पीड़ा को देखकर स्वयं कांप उठता है तथा यथासंभव उनकी सेवा करता है, यही उसका अनुकंपा गुण है। तथा वह तत्त्वों की श्रद्धापूर्वक सबके अस्तित्व को स्वीकार कर सह-अस्तित्त्व का जीवन जीने लगता है, यही उसका ‘आस्तिक्य' गुण है। इस गुण-स्थान में निम्नांकित 3 1. निरीह और निरपराध जीवों की हिंसा नहीं करता है। 2. अपने दोषों की निंदा तथा गर्दा करता है। 3. गुण-ग्राही दृष्टि रखता है। 1. धपु. 4/343 2. गो. जी. का. 654 1. 3. णयमरेइ णेव सजमुवेइ तह देस सजम वापि सम्मा मिच्छादिदि ण मरणत समुग्धादो 11/33 ब. पु.4/349 पर उस्त 4. प. स. प्रा 1/11 5. प्रशम संवेगानुकम्पास्तिक्यामिव्यक्ति लक्षण प्रथमम् सर्वा. सि. पृ. 7
SR No.010222
Book TitleJain Dharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramansagar
PublisherShiksha Bharti
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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