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________________ 198 / जैन धर्म और दर्शन आवत या विकृत करते हैं। जितनी-जितनी कर्म आवरण की घटाए सघन होती जाती हैं उतनी-उतनी जीव शक्तियों का प्रकाश कम होता जाता है तथा इसके विपरीत जैसे-जैसे कर्म-पटल विरल होते हैं, वैसे-वैसे आत्मा की शक्ति प्रकट होती जाती है। जीव के परिणामों के उतार-चढाव के अनुसार आत्मिक शक्तियों का विकास और ह्रास होता रहता है। यू तो परिणामों के उतार-चढाव की अपेक्षा आत्मिक विकास के आरोहण और अवरोहण के अनत विकल्प सभव हैं फिर भी परिणामों की उत्कृष्टता और जघन्यता की अपेक्षा, उन्हें चौदह भमिकाओं में विभक्त किया गया है जो निम्नलिखित है गुणस्थान के भेद 1 मिथ्यादृष्टि,2 सासादन,3 सम्यक्-मिथ्यादृष्टि,4 असयत सम्यक् दृष्टि,5 सयता सयत 6 प्रमत्त सयत 7 अप्रमत्त-सयत,8 अपूर्वकरण,9 अनिवृत्तिकरण, 10 सूक्ष्म-साम्पराय,11 उपशात मोह, 12 क्षीण मोह, 13 सयोग केवली,14 आयोग केवली। यहा सम्यक् दृष्टि के साथ लगा असयत विशेषण अपने से नीचे के सभी गुण-स्थानों में असयतत्व व्यक्त करता है, क्योंकि वह अत दीपक है। इससे ऊपर गुणस्थानों में सयम की यात्रा का सूत्रपात होता है । सम्यक्-दृष्टि पद ऊपर के सभी गुणस्थानों में नदी-प्रवाह की तरह अनुवृत्ति को प्राप्त है अर्थात् आगे के समस्त गुण-स्थान में सम्यक्-दर्शन पाया जाता है। छठे गुणस्थान में प्रयुक्त 'प्रमत्त' विशेषण अपने साथ नीचे के सभी गुणस्थानों में प्रमाद के अस्तित्व का द्योतन करता है तथा उसके आगे जुडे 'सयत' शब्द से यह सूचित होता है कि ऊपर के सभी गुण स्थान सयतों के ही होते है। ( बारहवें गुण-स्थान के साथ जुडा 'छद्मस्थ' शब्द भी अन्त-दीपक है,क्योंकि आवरण कर्मों के अभाव हो जाने से उससे आगे की भूमिकाओं में छद्मस्थता नही रहती। त्रिविध आत्मा-उपर्युक्त चौदह गुण-स्थानवर्ति जीवों में प्रथम से तृतीय गुणस्थान तक के जीव बहिरात्मा, चतुर्थ से बारहवें गुण-स्थानवर्ति अन्तरात्मा तथा तेरहवें और चौदहवें गुण-स्थानवर्ति जीव परमात्मा कहे जाते हैं। बहिरात्मा जीव देह और आत्मा को एक मानकर बाह्य ऐन्द्रिक विषयों में अनुस्क्त रहते हैं। शरीर की उत्पत्ति को अपनी उत्पत्ति तथा शरीर के विनाश को अपना विनाश समझते हैं। इस प्रकार देह में ही आत्मा की प्रान्ति बनाए रखने के कारण भव भ्रमण करते रहते हैं। मिथ्यात्व सासादन और मिश्रगुण स्थानावर्ति जीव क्रमश उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य बहिरात्मा हैं क्योंकि बहिरात्मता का कारण मिथ्याभाव क्रमश क्षीण होता जाता है। अन्तरात्मा अन्तरात्मा अवस्था में जीव आत्मा और देह की पृथकता को समझकर अन्तर्मुखी/निरासक्त जीवन जीता हुआ भव बधन को काटने में जुट जाता है। अविरत सम्यक्-दृष्टि जघन्य अतरात्मा है तथा निर्विकल्प ध्यान में स्थित क्षीण मोही साधक उत्कृष्ट अतरात्मा कहलाते हैं। इससे बीच की अवस्था वाले सभी साधक मध्यम अतरात्मा कहलाते 1 ख 11 सूघ9-22
SR No.010222
Book TitleJain Dharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramansagar
PublisherShiksha Bharti
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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