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________________ 188 / जैन धर्म और दर्शन मोक्षमार्ग पर किसी भी प्रकार की शंका या संदेह नहीं रहता। रहे भी कैसे? श्रद्धा और शंका भला एक साथ रह भी कैसे सकते हैं ? हम अपने लौकिक जीवन में भी देख सकते हैं, जिसके प्रति हमारे मन में श्रद्धा रहती है, उसके प्रति कोई संदेह नहीं रहता। संदेह उत्पन्न होते ही श्रद्धा टूटने लगती है। सम्यक् दृष्टि को परमार्थ भूत देव, गुरु तथा उनके द्वारा प्रतिपादित सत्य सिद्धांत सन्मार्ग और वस्तु तत्त्व पर अविचल श्रद्धा रहती है। वह किसी प्रकार के लौकिक प्रलोभनों से विचलित नहीं होता। यह अविचलित श्रद्धा ही निःशंकित अंग या गुण है। नि:कांक्षित : विषय भोगों की इच्छा को आकांक्षा कहते हैं। सम्यक दृष्टि किसी प्रकार की लौकिक व पारलौकिक आकांक्षा नहीं रखता। उसके मन में इंद्रिय भोगों के प्रति बहुमान नहीं होता। वह बाहरी सुविधाओं को क्षणिक संयोगमात्र मानता है। उसकी यह दृढ़ मान्यता रहती है कि संसार के सारे संयोग कर्मों के आधीन हैं, साथ ही नाशवान भी हैं। पापोदय आ जाने से एक ही क्षण में धनवान से निर्धन, रूपवान से कुरूप,विद्वान से पागल,राजा से रंक हो सकता है। संसार में किसी का भी सुख शाश्वत नहीं होता। वह संसार के सभी सुखों को विष-मिश्रित मिष्ठान्नवत् अत्यंत हेय समझता है। यह सब समझकर वह सांसारिक प्रलोभनों से दूर रहता है । यही उनका निकांक्षित गुण है। निर्विचिकित्सा : विचिकित्सा का अर्थ ग्लानि या घृणा होता है। मम्यक दृष्टि मानव शरीर की बुरी आकृतियों को देखकर घृणा नहीं करता, अपितु हमेशा उनके गुणों का आदर करता है। उसका विश्वास रहता है कि शरीर तो स्वभाव से ही अपवित्र है । गुणो द्वारा ही इसमें पवित्रता आती है। वह दीन-दुःखी, दरिद्र, अनाथ और रोगियों के बीमार शरीर को देखकर घृणा नहीं करता अपितु प्रेमपूर्वक उनकी सेवा करता है। वह पदार्थ के बाहरी रूप पर दृष्टि न देकर उसके आंतरिक रूप पर दृष्टि देता है । इस अंतर्मुखी दृष्टि के कारण वह शरीर के ग्लानिजनक रूप से विमुख हो उसके गुणों में प्रीति रखता है। यही उसका निर्विचिकित्सा गुण है। अमूढ़ दृष्टि-मूढ़ता 'मूर्खता' को कहते हैं। मूर्खतापूर्ण दृष्टि को मूढ़ दृष्टि कहते हैं। सम्यक् दृष्टि विवेकी होता है। वह अपने विवेक व बुद्धि मे सत्य-असत्य, हेय-उपादेय और हित-अहित का निर्णय कर ही उसे अपनाता है। वह अंधश्रद्धालु नहीं होता। परमार्थ-भूत, देव,शास्त्र और गुरु को वह पूर्ण बहुमान देता है। इनके अतिरिक्त अन्य कुमार्ग गामियो के वैभव को देखकर प्रभावित नहीं होता, न ही उनकी निंदा या प्रशंसा करता है अपितु उनके प्रति राग-द्वेष से ऊपर उठकर माध्यस्थ भाव धारण करता है । यही उसका अमूढ़ दृष्टित्व है। उपग्रहन : सम्यक दृष्टि गुण ग्राही होता है | सतत् अपनी साधना के प्रति जागरूक रहता है। यदि कदाचित् किसी परिस्थिति, अज्ञान या प्रमाद के कारण किसी व्यक्ति से कोई अपराध हो जाए तो वह उसे सबके बीच प्रकट नहीं करता, अपितु एकांत में समझाकर उसे दूर करने का प्रयास करता है । जैसे बाजार में अनेक वस्तुएं रहते हुए भी हमारी दृष्टि वहीं जाती है जिसकी हमें जरूरत है। वैसे ही सम्यक दृष्टि को गुण ही गुण दिखाई पड़ते हैं। अपने अंदर अनेक गुणों के रहने के बाद भी वह कभी अपनी प्रशंसा नहीं करता अपितु अपने दोषों को ही बताता है । दूसरों के दोषों को वह सदा छिपाकर उनके गुणों को प्रकट करता है । तात्पर्य यह है कि वह अपने दोषों
SR No.010222
Book TitleJain Dharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramansagar
PublisherShiksha Bharti
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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