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________________ मोक्ष के साधन / 187 1. लोकमूढ़ता सम्यक् दृष्टि दूसरों की देखा-देखी में अधश्रद्धा से ऐसा कोई कार्य नहीं करता जिससे आत्मा की विशुद्धि नहीं होती । “इसमें स्नान करने से जन्म-जन्मान्तरों के पाप नष्ट होते हैं।" इस वृद्धि से वह कभी नदी या सागर मे स्नान नहीं करता.क्योंकि ऐसा होता तो सारे जलचर जीवों का पाप बचना ही नहीं चाहिए। उन्हे तो अब तक पूर्ण निष्पाप हो जाना चाहिए । धर्म बुद्धि से पर्वत पर चढ़ना-गिरना, अग्नि का ढेर लगाकर उस पर कूदना (अलाव कूदना) पत्थरों और बालू का ढेर लगाकर पूजना तथा पेड़-पौधों की पूजा आदि लोक मूढ़ता है । सम्यक् दृष्टि ऐसे कार्य नहीं करता । वह इन्हें 'लोकमूर्खता' समझता है। 2. देव मूढ़ता : वह कल्पित, रागी-द्वेषी देवी-देवताओ को ईश्वर मानकर उनसे कोई वरदान नहीं मांगता । दुःख दूर करने के लिये किसी प्रकार की प्रार्थना नहीं करता तथा धन, वैभव,राज्य, पुत्रादिक को याचना नहीं करता । क्योंकि उसका यह दृढ विश्वास रहता है कि संसार के सारे दुःख-सुख अपने-अपने पाप और पुण्य के आश्रित हैं। कोई भी हमें कुछ दे नहीं सकता और न ही हमारा कुछ छीन सकता है। दूसरे हमें कुछ देते है इस प्रकार के विश्वास से कल्पित देवी-देवताओं की पूजा करना 'देव-मूढ़ता है। 3. गुरु मूढ़ता-सच्चे गुरु की परख हो जाने के कारण वह उनके अतिरिक्त वेशधारी जन-प्रवंचक ऐसे गरु को नहीं मानता जो सत्य ज्ञान और सदाचार से दूर है। लोगों से अपनी पूजा कराते हैं। धन संग्रह करते हैं तथा आरभ परिग्रह मे युक्त रहते हैं। झूठे आश्वासन देकर जनता को ठगते हैं एवं मादक पदार्थों का सेवन करते हैं। ऐसे व्यक्तियों को गुरु मानकर वह उनकी पूजा प्रशंसादि नहीं करता, अपित् पत्थर की नाव की तरह संसार में डुबाने वाला समझकर उनकी उपासना को गुरु मूढ़ता/मृर्खता समझता है । आठ मद इसी प्रकार वह, मैं बहुत ज्ञानवान हूं, मेरी बहुत प्रतिष्ठा है, मेरा कुल ऊंचा है, मेरी जाति उच्च है, मैं अतुल पराक्रम का धनी हूं, मेरे पास विपुल धन है, मैं महान तपम्वी हूं तथा मैं बहुत रूपवान हं इत्यादिक रूप से अहंकार नहीं करता। ये मद कहलाते हैं। इनके होने पर सम्क्त्व का दम निकल जाता है। सम्यक दृष्टि इन उपलब्धियों को क्षणिक समझकर नाशवान समझता है । यह सम्यक् दर्शन का खतरनाक शत्रु है। सम्यक् दर्शन के अंग इस प्रकार सच्चे देव,शास्त्र और गुरु पर तीन मृढ़ता और आठ मदों से रहित होकर श्रद्धा करने वाले सम्यक् दृष्टि के स्वाभाविक रूप से आठ गुण प्रकट हो जाते हैं । जिसमे उमका आचरण निर्मल बन जाता है। इन्हें सम्यकत्व के अंग भी कहते हैं। जैसे हमारे शरीर के आठ अंग हैं वैसे ही सम्यक्त्व के आठ अंग हैं-निःशंकित, निकांक्षित, निर्विचिकित्सा, अमूढ़-दृष्टि, उपगूहन, स्थितिकरण.वात्सल्य और प्रभावना। आइए क्रमपूर्वक इन पर विचार करें निःशंकित : शंका का अर्थ होता है संदेह । सम्यक दृष्टि निःशंक होता है। उसे 1 रक. श्रावकाचार-25
SR No.010222
Book TitleJain Dharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramansagar
PublisherShiksha Bharti
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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