SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 195
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मोक्ष के साधन / 185 गुरु-गुरु का मोक्षमार्ग में महत्त्वपूर्ण स्थान है। ये हमारे मार्गदर्शक हैं। देव आज है नहीं और शास्त्र मौन है। ऐसी स्थिति में गुरु ही हमारे सहायी होते हैं। गुरु के अभाव में हम शास्त्र के रहस्यों को भी नहीं समझ सकते । जैसे समुद्र का जल खारा होता है हम उसमें नहा भी नहीं पाते और न ही उससे हमारी प्यास बुझती है । लेकिन वही जल सूर्य के प्रताप से वाष्पीकृत होकर बादल बनकर बरसता है तो वह मीठा और तृप्तिकर बन जाता है। हम आनंद के साथ उस जल में अवगाहित होते हैं। वैसे ही शास्त्र भी अगम समुद्र की तरह है। हम अपने क्षुद्र ज्ञान के बल से उसमें अवगाहित नहीं हो पाते । गुरु अपने अनुभव के प्रताप से उसे अवशोषित कर बादल की तरह जब हम पर बरसाते हैं तब महान् तृप्ति और अह्लाद उत्पन्न होता है, तथा हम सहज ही शास्त्रों के मर्म को समझ जाते हैं । जो प्रेरणा हमें गुरुओं की कृपा से मिलती है वह शास्त्र और देव से नहीं; क्योंकि गुरु तो जीवित देव होते हैं। शास्त्र और देव प्रतिमा तो जड़ है। मान लें आपको किसी अपरिचित रास्ते से गुजरना पड़े, तो आप एकदम साहस नहीं जटा पाते । भय लगता है। पता नहीं आगे यह रास्ता कैसा है? कितनी दर्गम घाटियाँ हैं? कितने नदी-नाले हैं? कितने मोड़ हैं? कहीं जंगली जानवरों का आतंक तो नहीं? चोर-लुटेरों का दल तो नहीं रहता? बीच में पड़ने वाले गांवों के लोग पता नहीं कैसे हैं? ऐसी अनेक आशंकाओं से मन भयाक्रांत हो उठता है। रास्ते का पता लगने के बाद भी पांव आगे नहीं बढ़ पाते। संयोगतः वहीं कोई आपका चिर-परिचित मित्र मिल जाए और वह आपसे कहे-अरे ! यह रास्ता तो बहुत अच्छा है। मैं तो रोज ही यहां से आया-जाया करता हैं। इसके चप्पे-चप्पे से मैं परिचित हूं। यहां कोई कठिनाई नहीं, सड़क अच्छी है। रास्ते में पड़ने वाले गांव के लोग सभ्य और सरल हैं। आओ मेरे साथ मुझे भी उधर ही जाना है,मैं तुम्हें तुम्हारे घर पहुँचा देता हूं। उनकी बात सुनते ही हमारे मन का भय भाग जाता है तथा हमारे कदम सहज ही उस ओर बढ़ जाते हैं। यही स्थिति गुरु की है। शास्त्र के माध्यम से हम सही मार्ग जान तो लेते हैं लेकिन अवरोधों के भय से उस पर चल पाने का साहस नहीं जुटा पाते । गुरु कहते हैं मार्ग तो बहुत सरल है। मुझे देखो मैं भी तो चल रहा हूं। आओ मेरे साथ । उन्हें देखकर सहज ही आगे बढ़ने की प्रेरणा मिलने लगती है। लोक में गुरु भी अनेक प्रकार के पाये जाते हैं। अनेक धर्म हैं और अनेकों धर्म गुरु । इनमें सच्चा गुरु किनको समझा जाए? यह बड़ा ही जटिल प्रश्न है। लौकिक क्षेत्र में तो माता-पिता, अध्यापक आदि गुरु माने जा सकते हैं, किंतु पारमार्थिक क्षेत्र में किन्हें गुरु माना जाए, हमें यह देखना है। सच्चे गुरु का स्वरूप बताते हुए आचार्य श्री समन्त भद्र ने कहा विषयाशावशातीतो निरारम्भोपरिग्रहः ज्ञान ध्यान तपोरक्तः तपस्वी स प्रशस्ते ॥ अर्थात् विषय कषायों से रहित, आरंभ परिग्रहों से परिमुक्त होकर ज्ञान, ध्यान और तप में लवलीन साधु ही सच्चे गुरु हैं। विषयासक्ति रहितता : यह सच्चे गुरु की पहली विशेषता है। विषयाभिलाषा,
SR No.010222
Book TitleJain Dharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramansagar
PublisherShiksha Bharti
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy